Biography of Parveen Shakir and her ghazals in hindi

दिल के उन जज़्बातों को जो महसूस तो अक्सर हर कोई करता है, मगर उनके पास कभी अल्फ़ाज़ यानी के शब्द नहीं होते तो कभी उनके पास उनको करिने से सजाकर कहना या लिखना नहीं आता।  ये दोनों हुनर जिसके पास है, उनको शायर कहते हैं. ऐसा नहीं की शायरी पर मर्दों की ही हुक्मरानी रही है, सदियों से मगर बहुत बड़े पैमाने पर अगर देखा जाए तो या कहा जा सकता है की, शायरी पर कब्जा हमेशा मर्द शायरों का रहा है। मगर दिल तो औरतों के पास भी होता है, और वो भी उनही सब जज़्बातों से दो चार होती हैं। जिनसे मर्द हुआ करते हैं, और यही जज़्बात जब किसी औरत के दिल में उठते हैं तो वो भी शायरी करती है, और जब वो खुद शायरी करती है तो फिर शायरी मे एक नया दर्द एक नया पहलू नज़र आता है. ज़िंदगी का इसी अंदाज़ की एक शायरा हुई नाम था उनका परवीन शाकिर. एक छोटी सी उम्र मे जो मुकाम परवीन शाकिर को हासिल हुआ उनकी शायरी के ज़रिये वो कबील-ए-तारीफ है.                                     


परवीन शाकिर और उनकी ज़िंदगी


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अक्सर ये कहा जाता है की, शायर बनते नहीं शायर पैदा होते हैं क्योंकि, शायर के सिने में जो दिल धड़कता है वो आम इंसान के दिल से कहीं शायद ज़्यादा धड़कता है। वो हर खास बात में आम बात और हर आम बात में खास बातें ढूंढ लिया करता है, जब ज़मीन में बीज डाला जाता है। वो उसी वक़्त से उस बीज को पौधे के तौर पर देखने लगता है, वो उसी वक़्त उस पौधे को एक पेड़ की तरह महसूस करने लगता है। उस पेड़ में लगे फलों की लज़्ज़त भी उसकी ज़बान महसूस कर सकती है, कुछ इस क़िस्म और मिजाज़ के होते हैं शायर.

            परवीन शाकिर की पैदाइश 24 नवम्बर 1952 के दिन शाकिर हुसैन साहब के घर पाकिस्तान के कराची के सिंध इलाके में हुई, बचपना परवीन का कराची में ही गुज़रा वो बचपन से ही पढ़ने में काफी अच्छी थीं, कराची के सर सय्यद कॉलेज से उन्होने इंटरमिडियट तक की पढ़ाई की. वो आगे और पढ़ाई करना चाहतीं थीं, पढ़ाई में काफी अच्छी थीं तो घर वालों ने भी उन्हे पढ़ने दिया। लिहाजा उन्होने कराची के जामिया से एम.ए अंग्रेज़ी की डिग्री ली, फिर बैंक एड्मिनिसट्रेशन में एम.ए की डिग्री ली, और पी.एच.डी की डिग्री भी ली सन 1982 में उन्होने Central Superior Services Examination को भी पास किया उसके बाद सन 1991 में हॉवर्ड विश्वविद्यालय उस से Public Administration में M. A. की डिग्री ली.

            परवीन शाकिर की शादी नासिर अली से हुई थी, वो पेशे से डॉक्टर थे मगर बहुत दिनों तक दोनों का साथ न रह सका। क्या पता शायरों के साथ क्या बात है ? की किसी से उनकी तबीयत मिलती नहीं वो दुनियाँ को जिस नज़रिये से देखते हैं, दुनियाँ उस नज़र से शायरों को नहीं देख पाती। जिसकी वजह से उनको अपनी ज़िंदगी में कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, और अक्सर शादी शुदा शायरों की ज़िंदगी में देख गया है की, उनकी शादी बहुत दिनों तक नहीं रह पाती, यही हुआ परवीन के साथ भी उनकी शादी भी तालक पर आके ख़त्म हुई। इस शादी से उनको एक लड़का भी था जिसका नाम रखा गया था मुराद अली.

परवीन शाकिर की शायरी का अंदाज़


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परवीन शाकिर की शायरी में वो दर्द साफ दिखाई देता है, जो उन्हे ज़िंदगी ने उनको दिये नज़ाकत नर्म लहजा उनकी शायरी और उनके शख्सियत की खासियत थी, ये सब मिल कर उनकी शायरी एक अलग सी दिल आवेज़ शक्ल अख़्तियार कर लेती थी. जो आज भी सुनने वालों के दिल में एक खास किस्म रूहानी जज़्बात को पैदा करती है, उनकी शायरी में एक औरत अकसर नज़र आती है, जो अपने टूटे हुए दिल से आवाज़ देती है, जिसके दिल में दर्द तो है मगर वो उस वक़्त भी खुद्दार है.

             उनकी ग़ज़लों को एक किताब की शक्ल दी गई, और उसका नाम था खुश्बु जो की, सन 1976 में आई अपनी पहली किताब से ही वो मशहूर हो गईं शायरी की दुनियाँ में। उसके बाद सदबर्ग आई जो की सन 1980 में आई ख़ुद कलामी जो की 1990 में और इसी सन में आई इनकार फिर आई माह-ए-तमाम सन 1994 में.

परवीन शाकिर का अचानक चले जाना 


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परवीन शाकिर का दर्द भी था, उनकी ज़िंदगी भी थी, जिसके आसपास वो अपनी शायरी बुनती रहतीं थी। और अपने फर्ज़ को भी अंजाम देती रहती थीं. इसी तरह गुज़र रही थी ज़िंदगी मगर फिर हुआ यूं की एक सर्द सुबह। अभी लोग क्रिसमस की खुमारी में ही थे की, 26 दिसम्बर 1994 के दिन इस्लामाबाद की एक सड़क पर वो अपनी सरकारी गाड़ी से अपने दफ्तर की ओर जा रही थीं. वो पीछे कार के बैठी हुई थीं और ड्राइवर कार चला रहा था. दूसरी तरफ से आती एक गाड़ी से इनकी कार की ज़बरदस्त टक्कर हुई और एक अज़ीम शायरा अपनी किसी नज़्म की तरह ख़त्म हुईं. बाद में उस सड़क का नाम परवीन शाकिर के नाम पर रखा गया।
वो अपने जमाने में शायरी की दुनियाँ में चमकता हुआ एक सितारा थीं, उन्होने अपने जमाने के कई मशहूर शायरों के साथ मुशायरों में हिस्सा लिया था.

परवीन शाकिर के कुछ कलाम 



इश्क़ के इस सफ़र ने

चलने का हौसला नहीं रुकना मुहाल कर दिया
इश्क़ के इस सफ़र ने तो मुझ को निढाल कर दिया

ऐ मिरी गुल-ज़मीं तुझे चाह थी इक किताब की
अहल-ए-किताब ने मगर क्या तिरा हाल कर दिया

मिलते हुए दिलों के बीच और था फ़ैसला कोई
उस ने मगर बिछड़ते वक़्त और सवाल कर दिया

अब के हवा के साथ है दामन-ए-यार मुंतज़िर
बानू-ए-शब के हाथ में रखना सँभाल कर दिया

मुमकिना फ़ैसलों में एक हिज्र का फ़ैसला भी था
हम ने तो एक बात की उस ने कमाल कर दिया

मेरे लबों पे मोहर थी पर मेरे शीशा-रू ने तो
शहर के शहर को मिरा वाक़िफ़-ए-हाल कर दिया

चेहरा ओ नाम एक साथ आज न याद आ सके
वक़्त ने किस शबीह को ख़्वाब ओ ख़याल कर दिया

मुद्दतों बा'द उस ने आज मुझ से कोई गिला किया
मंसब-ए-दिलबरी पे क्या मुझ को बहाल कर दिया 

                                                    

                                                   ख़ुशबू की तरह मेरी पज़ीराई की


कू-ब-कू फैल गई बात शनासाई की
उस ने ख़ुशबू की तरह मेरी पज़ीराई की
कैसे कह दूँ कि मुझे छोड़ दिया है उस ने
बात तो सच है मगर बात है रुस्वाई की
वो कहीं भी गया लौटा तो मिरे पास आया
बस यही बात है अच्छी मिरे हरजाई की
तेरा पहलू तिरे दिल की तरह आबाद रहे
तुझ पे गुज़रे न क़यामत शब-ए-तन्हाई की
उस ने जलती हुई पेशानी पे जब हाथ रखा
रूह तक आ गई तासीर मसीहाई की
अब भी बरसात की रातों में बदन टूटता है
जाग उठती हैं अजब ख़्वाहिशें अंगड़ाई की 


वही ख़्वाब अज़ाबों की तरह


गए मौसम में जो खिलते थे गुलाबों की तरह
दिल पे उतरेंगे वही ख़्वाब अज़ाबों की तरह
राख के ढेर पे अब रात बसर करनी है
जल चुके हैं मिरे ख़ेमे मिरे ख़्वाबों की तरह
साअत-ए-दीद कि आरिज़ हैं गुलाबी अब तक
अव्वलीं लम्हों के गुलनार हिजाबों की तरह
वो समुंदर है तो फिर रूह को शादाब करे
तिश्नगी क्यूँ मुझे देता है सराबों की तरह
ग़ैर-मुमकिन है तिरे घर के गुलाबों का शुमार
मेरे रिसते हुए ज़ख़्मों के हिसाबों की तरह
याद तो होंगी वो बातें तुझे अब भी लेकिन
शेल्फ़ में रक्खी हुई बंद किताबों की तरह
कौन जाने कि नए साल में तू किस को पढ़े
तेरा मेआ'र बदलता है निसाबों की तरह
शोख़ हो जाती है अब भी तिरी आँखों की चमक
गाहे गाहे तिरे दिलचस्प जवाबों की तरह
हिज्र की शब मिरी तन्हाई पे दस्तक देगी
तेरी ख़ुश-बू मिरे खोए हुए ख़्वाबों की तरह


मुझ में तेरा जमाल था क्या था

इक हुनर था कमाल था क्या था
मुझ में तेरा जमाल था क्या था
तेरे जाने पे अब के कुछ न कहा
दिल में डर था मलाल था क्या था
बर्क़ ने मुझ को कर दिया रौशन
तेरा अक्स-ए-जलाल था क्या था
हम तक आया तू बहर-ए-लुत्फ़-ओ-करम
तेरा वक़्त-ए-ज़वाल था क्या था
जिस ने तह से मुझे उछाल दिया
डूबने का ख़याल था क्या था
जिस पे दिल सारे अहद भूल गया
भूलने का सवाल था क्या था
तितलियाँ थे हम और क़ज़ा के पास
सुर्ख़ फूलों का जाल था क्या था 


मुझ पे एहसान हवा करती है


मुझ पे एहसान हवा करती है
चूम कर फूल को आहिस्ता से
मोजज़ा बाद-ए-सबा करती है
खोल कर बंद-ए-क़बा गुल के हवा
आज ख़ुश्बू को रिहा करती है
अब्र बरसते तो इनायत उस की
शाख़ तो सिर्फ़ दुआ करती है
ज़िंदगी फिर से फ़ज़ा में रौशन
मिशअल-ए-बर्ग-ए-हिना करती है
हम ने देखी है वो उजली साअत
रात जब शेर कहा करती है
शब की तन्हाई में अब तो अक्सर
गुफ़्तुगू तुझ से रहा करती है
दिल को उस राह पे चलना ही नहीं
जो मुझे तुझ से जुदा करती है
ज़िंदगी मेरी थी लेकिन अब तो
तेरे कहने में रहा करती है
उस ने देखा ही नहीं वर्ना ये आँख
दिल का अहवाल कहा करती है
मुसहफ़-ए-दिल पे अजब रंगों में
एक तस्वीर बना करती है
बे-नियाज़-ए-कफ़-ए-दरिया अंगुश्त
रेत पर नाम लिखा करती है
देख तू आन के चेहरा मेरा
इक नज़र भी तिरी क्या करती है
ज़िंदगी भर की ये ताख़ीर अपनी
रंज मिलने का सिवा करती है
शाम पड़ते ही किसी शख़्स की याद
कूचा-ए-जाँ में सदा करती है
मसअला जब भी चराग़ों का उठा
फ़ैसला सिर्फ़ हवा करती है
मुझ से भी उस का है वैसा ही सुलूक
हाल जो तेरा अना करती है
दुख हुआ करता है कुछ और बयाँ
बात कुछ और हुआ करती है 


अब इतनी सादगी लाएँ कहाँ से




अब इतनी सादगी लाएँ कहाँ से
ज़मीं की ख़ैर माँगें आसमाँ से
अगर चाहें तो वो दीवार कर दें
हमें अब कुछ नहीं कहना ज़बाँ से
सितारा ही नहीं जब साथ देता
तो कश्ती काम ले क्या बादबाँ से
भटकने से मिले फ़ुर्सत तो पूछें
पता मंज़िल का मीर-ए-कारवाँ से
तवज्जोह बर्क़ की हासिल रही है
सो है आज़ाद फ़िक्र-ए-आशियाँ से
हवा को राज़-दाँ हम ने बनाया
और अब नाराज़ ख़ुशबू के बयाँ से
ज़रूरी हो गई है दिल की ज़ीनत
मकीं पहचाने जाते हैं मकाँ से
फ़ना-फ़िल-इश्क़ होना चाहते थे
मगर फ़ुर्सत न थी कार-ए-जहाँ से
वगर्ना फ़स्ल-ए-गुल की क़द्र क्या थी
बड़ी हिकमत है वाबस्ता ख़िज़ाँ से
किसी ने बात की थी हँस के शायद
ज़माने भर से हैं हम ख़ुद गुमाँ से
मैं इक इक तीर पे ख़ुद ढाल बनती
अगर होता वो दुश्मन की कमाँ से
जो सब्ज़ा देख कर ख़ेमे लगाएँ
उन्हें तकलीफ़ क्यूँ पहुँचे ख़िज़ाँ से
जो अपने पेड़ जलते छोड़ जाएँ
उन्हें क्या हक़ कि रूठें बाग़बाँ से 


पूरा दुख और आधा चाँद



पूरा दुख और आधा चाँद

हिज्र की शब और ऐसा चाँद

दिन में वहशत बहल गई

रात हुई और निकला चाँद
किस मक़्तल से गुज़रा होगा
इतना सहमा सहमा चाँद
यादों की आबाद गली में
घूम रहा है तन्हा चाँद
मेरी करवट पर जाग उठ्ठे
नींद का कितना कच्चा चाँद
मेरे मुँह को किस हैरत से
देख रहा है भोला चाँद
इतने घने बादल के पीछे
कितना तन्हा होगा चाँद
आँसू रोके नूर नहाए
दिल दरिया तन सहरा चाँद
इतने रौशन चेहरे पर भी
सूरज का है साया चाँद
जब पानी में चेहरा देखा
तू ने किस को सोचा चाँद
बरगद की इक शाख़ हटा कर
जाने किस को झाँका चाँद
बादल के रेशम झूले में
भोर समय तक सोया चाँद
रात के शाने पर सर रक्खे
देख रहा है सपना चाँद
सूखे पत्तों के झुरमुट पर
शबनम थी या नन्हा चाँद
हाथ हिला कर रुख़्सत होगा
उस की सूरत हिज्र का चाँद
सहरा सहरा भटक रहा है
अपने इश्क़ में सच्चा चाँद
रात के शायद एक बजे हैं
सोता होगा मेरा चाँद


टूटी है मेरी नींद मगर तुम को इस से क्या


टूटी है मेरी नींद मगर तुम को इस से क्या
बजते रहें हवाओं से दर तुम को इस से क्या
तुम मौज मौज मिस्ल-ए-सबा घूमते रहो
कट जाएँ मेरी सोच के पर तुम को इस से क्या
औरों का हाथ थामो उन्हें रास्ता दिखाओ
मैं भूल जाऊँ अपना ही घर तुम को इस से क्या
अब्र-ए-गुरेज़-पा को बरसने से क्या ग़रज़
सीपी में बन न पाए गुहर तुम को इस से क्या
ले जाएँ मुझ को माल-ए-ग़नीमत के साथ अदू
तुम ने तो डाल दी है सिपर तुम को इस से क्या
तुम ने तो थक के दश्त में खे़मे लगा लिए
तन्हा कटे किसी का सफ़र तुम को इस से क्या


इरादा नहीं किया

हम ने ही लौटने का इरादा नहीं किया
उस ने भी भूल जाने का वा'दा नहीं किया
दुख ओढ़ते नहीं कभी जश्न-ए-तरब में हम
मल्बूस-ए-दिल को तन का लबादा नहीं किया
जो ग़म मिला है बोझ उठाया है उस का ख़ुद
सर ज़ेर-ए-बार-ए-साग़र-ओ-बादा नहीं किया
कार-ए-जहाँ हमें भी बहुत थे सफ़र की शाम
उस ने भी इल्तिफ़ात ज़ियादा नहीं किया
आमद पे तेरी इत्र ओ चराग़ ओ सुबू न हों
इतना भी बूद-ओ-बाश को सादा नहीं किया 


क़ैद में गुज़रेगी जो उम्र बड़े काम की थी


क़ैद में गुज़रेगी जो उम्र बड़े काम की थी
पर मैं क्या करती कि ज़ंजीर तिरे नाम की थी
जिस के माथे पे मिरे बख़्त का तारा चमका
चाँद के डूबने की बात उसी शाम की थी
मैं ने हाथों को ही पतवार बनाया वर्ना
एक टूटी हुई कश्ती मिरे किस काम की थी
वो कहानी कि अभी सूइयाँ निकलीं भी न थीं
फ़िक्र हर शख़्स को शहज़ादी के अंजाम की थी
ये हवा कैसे उड़ा ले गई आँचल मेरा
यूँ सताने की तो आदत मिरे घनश्याम की थी
बोझ उठाते हुए फिरती है हमारा अब तक
ऐ ज़मीं-माँ तिरी ये उम्र तो आराम की थी


नई ख़ुशबू में लिखा चाहता है

हर्फ़-ए-ताज़ा नई ख़ुशबू में लिखा चाहता है
बाब इक और मोहब्बत का खुला चाहता है
एक लम्हे की तवज्जोह नहीं हासिल उस की
और ये दिल कि उसे हद से सिवा चाहता है
इक हिजाब-ए-तह-ए-इक़रार है माने वर्ना
गुल को मालूम है क्या दस्त-ए-सबा चाहता है
रेत ही रेत है इस दिल में मुसाफ़िर मेरे
और ये सहरा तिरा नक़्श-ए-कफ़-ए-पा चाहता है
यही ख़ामोशी कई रंग में ज़ाहिर होगी
और कुछ रोज़ कि वो शोख़ खुला चाहता है
रात को मान लिया दिल ने मुक़द्दर लेकिन
रात के हाथ पे अब कोई दिया चाहता है
तेरे पैमाने में गर्दिश नहीं बाक़ी साक़ी
और तिरी बज़्म से अब कोई उठा चाहता है 


समुंदरों के उधर से कोई सदा आई




समुंदरों के उधर से कोई सदा आई
दिलों के बंद दरीचे खुले हवा आई
सरक गए थे जो आँचल वो फिर सँवारे गए
खुले हुए थे जो सर उन पे फिर रिदा आई
उतर रही हैं अजब ख़ुशबुएँ रग-ओ-पै में
ये किस को छू के मिरे शहर में सबा आई
उसे पुकारा तो होंटों पे कोई नाम न था
मोहब्बतों के सफ़र में अजब फ़ज़ा आई
कहीं रहे वो मगर ख़ैरियत के साथ रहे
उठाए हाथ तो याद एक ही दुआ आई 


जब साज़ की लय बदल गई थी

जब साज़ की लय बदल गई थी
वो रक़्स की कौन सी घड़ी थी
अब याद नहीं कि ज़िंदगी में
मैं आख़िरी बार कब हँसी थी
जब कुछ भी न था यहाँ पे मा-क़ब्ल
दुनिया किस चीज़ से बनी थी
मुट्ठी में तो रंग थे हज़ारों
बस हाथ से रेत बह रही थी
है अक्स तो आइना कहाँ है
तमसील ये किस जहान की थी
हम किस की ज़बान बोलते हैं
गर ज़ेहन में बात दूसरी थी
तन्हा है अगर अज़ल से इंसाँ
ये बज़्म-ए-कलाम क्यूँ सजी थी
था आग ही गर मिरा मुक़द्दर
क्यूँ ख़ाक में फिर शिफ़ा रखी थी
क्यूँ मोड़ बदल गई कहानी
पहले से अगर लिखी हुई थी 



अगर आपके पास कोई सुझाव या कोई जानकारी है परवीन शाकिर से जुड़ी हुई तो कृपया Comment कीजिए जिससे  हम सुधार कर सकें धन्यवाद .

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