Biography of Shakeel Badayuni


शकील की शुरुवाती ज़िंदगी


Shakeel badayuni ki shayari


शकील बदायूंनी का नाम लेते ही कई सारे ऐसे गाने ज़हन में आ जाते हैं, जिनको आप चाहे न चाहें एक बार ज़रूर गुनगुना लेते है। शायर पैदा होते हैं अपनी ज़िंदगी के साथ मगर शायर की मौत नहीं होती, वो ज़िंदा रहते हैं अपनी शायरी के ज़रिये अपनी सोच के ज़रिये. कुछ ऐसे ही 3 अगस्त 1916 के दिन उत्तरप्रदेश के बदांयू में एक मामूली से बच्चे का जन्म हुआ, उसका नाम रखा गया गफ़्फ़ार अहमद उनके वालिद का नाम मूहोम्मद जमाल अहमद सोख्ता क़ादरी था. बदायूँ में पढ़ाई लिखाई का कोई ख़ास इतेज़ाम न होने की वजह से उनको उनके दूर के एक रिश्तेदार ज़िया उल क़ादरी के पास पढ़ने के लिए पहुंचा दिया गया. लखनऊ जहां से शकील ने अपनी स्कूल तक की पढ़ाई लखनऊ से ही की. उसी दरमयान शकील ने ज़िया उल क़ादरी से शायरी की शुरुवाती तालिम भी ली, ज़िया उल क़ादरी उस वक़्त के जाने माने शायर थे. उनका नाम शायरों की दुनियाँ में बड़े अदब से लिया जाता था। शकील को बचपन से ही शायरी का शौक था उनके वालिद चाहते थे की, शकील ख़ूब पढ़ें लिखे और ज़िंदगी में  एक क़ामयाब इंसान बने उसके लिए उन्होने शकील को हिन्दी अँग्रेजी उर्दू फारसी और अरबी भाषाओं की तालिम भी दिलवाई. शकील भी यही चाहते थे मगर ज़िया उल क़ादरी की सोहबत ने उन्हे शायरी के शौक को और हवा दी, इस तरह उनका झुकाओ शायरी की तरफ़ और भी गहरा होने लगा,


शकील और अलीगढ़


shakeel badayuni ki shayari


सन 1936 में जब वो अलीगढ़ गए अपनी बी.ए. की पढ़ाई के लिए वहाँ वो अक्सर अपने दोस्तों को अपनी लिखी शायरी सुनाया करते, उनकी शायरी उनके दोस्तों को बहुत पसंद आती ये सिलसिला चलता रहा. फिर धीरे धीरे वो कॉलेज में होंने वाले मुशायरों में हिस्सा लेने लगे.अब वो काफ़ी मशहूर हो गए थे अपनी शायरी के चलते, ये सब शौकिया तौर पर वो किया करते खैर ये सब होता रहा और सन 1940 उनकी बी.ए. की पढ़ाई पूरी हुई। उसी दरमायान उनकी शादी सलमा से करवा दी घर वालों ने ये सोचा की अब पढ़ाई पूरी हो गई है, कहीं न कहीं एक अच्छी नौकरी मिल ही जाएगी, और ये हुआ भी उन्हे दिल्ली में एक जगह नौकरी मिल भी गई मगर उनका ज़्यादा मन शायरी में ही लगा रहता. उन्हे देश के कोने कोने से मुशायरों में बुलाया जाने लगा था, वो ज़माना था जब देश ग़ुलामी की जंजीरों से जकड़ा हुआ था और बहुत सारे आंदोलन हो रहे थे अंग्रेजों के खिलाफ़ उस जमाने में जो शायरी हुआ करती थी, वो देश प्रेम के आसपास की हुआ करती थी मगर शकील के शायरी में हमेशा इश्क़ मूहोब्बत महबूब की बातें होतीं थीं। एक खास रूमानी एहसास के लिया मशहूर थीं शकील की शायरी.


शकील और नौशाद की दोस्ती


Shakeel badayuni ki shayari


किसी मुशायरे के सिलसिले में वो सन 1944 में मुंबई गए हुए थे, जहां उनकी मुलाक़ात मशहूर संगीतकार नौशाद और फिल्म प्रोड्यूसर ए. आर. क़ादर से हुई। वो उनदिनों एक फिल्म पर काम कर रहे थे जिसके लिए उन्हे एक नए गीतकार की तलाश थी, और इतेफाक से उनकी मुलाक़ात शकील से हो गयी उन्होने शकील से कहा वो अपने हुनर का इस्तेमाल करके एक गीत लिखे। शकील ने तुरंत एक लाइन लिख दी और वो कुछ इस तरह की थी “हम दिल का अफसाना दुनियाँ को सुना देंगे, हर दिल में मूहोब्बत की आग लगा देंगे. ये लाइन सुनते ही नौशाद और क़ादर को वो मिल गया था, जिनकी उन्हे तलाश थी. उन्होने तुरंत उन्हे अपनी फिल्म दर्द में गाने लिखने के लिए रख लिया। इस फिल्म के सारे गाने शकील ने लिखे और सब के सब बहुत मशहूर हुए, इस फिल्म का एक गाना जो खास तौर पर मशहूर हुआ जो आज भी उतना ही पसंद किया जाता है, जब वो पहली बार सुना गया था वो गाना है “अफ़साना लिख रही हूँ दिले बेक़रार का आंखों में रंग भर के तेरे इंतजार का” इस फिल्म के बाद नौशाद और शकील की दोस्ती हो गई वो जिस फिल्म में संगीत देते उसमें गाने शकील लिखते। फिल्म बैजु बावरा, मदर इंडिया, दीदार और मुग़ल-ए- आज़म गंगा जमुना, मेरे महबूब, चौदहवीं का चांद, साहब बीवी और गुलामके एक से बढ़ कर एक गानों में नौशाद ने संगीत दिया, और उन्हे लिखा शकील ने और आवाज़ दिया करते थे मुहोम्मद रफ़ी वो दौर कुछ ऐसा गुज़रा की उसकी खुशबू आज भी महसूस की जा सकती है. शकील ने महज 20 सालों तक फिल्मों में गाने लिखे और जब तक लिखे तब तक उनके सामने कोई नहीं था. उसपर संगीत नौशाद का और आवाज़ का जादू मूहोम्मद रफ़ी की शकील ने इन 20 सालों में करीब 89 फिल्मों में गाने लिखे.


शकील और उनकी उपलब्धि



शायद उनकी क़लम में स्याही की जगह एहसास भरे हुए होते थे, वो एहसास ही थे जो आज तक सुनने वाले पर एक जादू सा कर देते हैं. उन्होने ने जो भी गाने लिखे जिस फिल्म के लिए लिखा वो बहुत पसंद किया गया। इस जादूगरी के लिए उन्हे लगातार 3 बार फ़िल्म फ़ेयर भी दिया गया. 1960 में रिलिज हुई फ़िल्म “चौदवी का चाँद” के चौदवी का चांद हो या आफताब हो के लिए पहली बार फिर सन 1961 में रिलीज़ हुई फ़िल्म “घराना” के हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं के लिए दूसरी बार और 1962 में रिलीज़ हुई फ़िल्म “बीस साल बाद” के कहीं दीप जले कहीं दिल” के लिए तीसरी बार. उनकी उपलब्धियों में एक ये उपलब्धि भी है की भारत सरकार ने उन्हे “गीतकार-ए-आज़म” के ख़िताब से भी नवाज़ा.


शकील और बदायूँ



बदायूँ एक कस्बा हुआ करता था, शायद ही बदायूँ इतना मशहूर हुआ होता अगर वहाँ शकील पैदा नही हुए होते, आज इतने ज़माने बीत जाने क बाद भी उनके लिखे गाने और ग़ज़लें ज़रा सा कोई गुनगुना दे तो यकीनन सुनने वाला उसको पूरा का पूरा हर्फ़ ब हर्फ़ गा लेता है। ये था जादू उस क़लम के जादूगर का और एक और ख़ास जगह जो भारत के उत्तरप्रदेश में है बदायूँ , शकील ने अपने तखल्लुस के लिए पहले सबा और फ़रोग जैसे लब्जों का इस्तेमाल भी किया. मगर बाद में उन्होने शकील बदायूनि नाम से ही अपनी ग़ज़लें और गीत लिखे महज 13 साल की उम्र में उनकी पहली ग़ज़ल सन 1930 में शाने हिन्द अख़बार में छपी, जो उस इलाके का बहुत मशहोर अख़बार हुआ करता था. 


शकील की जादूगरी



शकील ने ना सिर्फ फिल्मों के लिए गाने लिखे बल्कि उनकी वो ग़ज़लें भी बहुत मशहूर हुईं जो उन्होने फिल्मों में इस्तेमाल नहीं की, उनकी ऐसी ग़ज़लें बहुत से ग़ज़ल गायकों ने गाईं हैं जैसे बेग़म अख्तर उन्होने उनकी बहुत सी गैर फिल्मी ग़ज़लों को अपनी रूमानी आवाज़ दी. शकील ने ना सिर्फ गीत ग़ज़लें नात क़व्वालियाँ लिखीं बल्कि ऐसे ऐसे भजन लिखे जो आज भी बहुत मशहूर हैं जैसे “मन तड़पत हरी दर्शन को आज”, “ओ दुनियाँ के रखवाले सून दर्द भरे मेरे नाले” और ऐसे कई.

 
शकील का जाना


सन 1964-65 के दिनों में शकील को एक लाइलाज बीमारी ने अपनी गिरफ़्त में ले लिया। उस बीमारी को टी.बी. रोग कहा जाता है, उस इसका कोई ख़ास इलाज नहीं हुआ करता था शकील की एक ग़ज़ल है-

सून तो सही जहां में है तेरा फसाना क्या
कहती है तुझसे ख़लक़-ए-ख़ुदा गायबाना क्या
आती है किस तरह से मेरी कब्ज़े रूह को
देखूँ तो मौत ढूंढ रही है बहाना क्या

20 अप्रैल 1970 के दिन आखिरकार मौत ने बहाना ढूंढ ही लिया, और क़लम के इस माहिर जादूगर को बहाने से दुनियाँ से चुराकर ले गई. मगर मौत उनके ख्याल को उनके गीतों को उनकी ग़ज़लों को हुमसे चुरा न सकी वो आज भी हैं, और तब तक ज़िंदा रहेगी जब तक शायरी ग़ज़ल गीतों के चाहने वाले रहेंगे.

 
शकील के लिखे कुछ मशहूर गाने और ग़ज़लें.


  •       चौदवीं का चाँद हो या आफताब हो
  •       जब प्यार किया तो डरना क्या
  •       अपनी आज़ादी को हम हरगिज़ मिटा सकते नहीं
  •          जब चली ठंडी हवा जब उडी काली घटा
  •       इंसाफ की डगर पर बच्चों दिखाओ चल के
  •       आज की रात मेरे दिल की सलामी लेले
  •       लो आ गयी उनकी याद वो नहीं आए
  •       रहा गर्दिशों में हरदम मेरे इश्क़ का सितारा



Biography of Sahir Ludhianvi


साहिर लुधियानवी


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साहिर का एक उर्दू का शब्द है जिसका मतलब हिन्दी में होता है जादूगर, और साहिर ने अपने नाम की तरह 
जादूगरी भी की शब्दों का ऐसा माया जाल रचा उन्होने
जो आज तक लोग सुलझा रहे हैं और आने वाली कई पीढ़ियाँ सुलझती रहेंगी. जज़्बातों से भरी हुई उनकी शायरी उनके गीत आज भी वैसा असर करते हैं जो उस वक़्त किया करते थे। जब वो पहली बार सुने या पढे गए थे लगभग 30 सालों तक साहिर ने अपनी कलम से कागज़ पर ये जादू बिखेरा.


साहिर लुधियानवी का बचपन



साहिर का जन्म पंजाब के लुधियाना मे 8 मार्च 1921 के दिन हुआ था, उनका जन्म जिस परिवार में हुआ वो परिवार इलाके का ज़मीनदार परिवार था। उनके पिता का नाम फ़ज़ल मूहोम्मद था कहतें हैं की, साहिर के पिता ने 12 महिलाओं के साथ निकाह किया था साहिर उनकी 11 बीवी बेगम सरदार से हुए थे, वो इतने बड़े खानदान के अकेले वारिस थे. यानि और किसी बीवी से मूहोम्मद फ़ज़ल को कोई औलाद नहीं थी। खैर नन्हें से इस बच्चे का नाम रखा गया अब्दुल हयी कहते हैं, इनके नाम के पीछे भी एक अजीब सि कहानी है वो कुछ इस तरह है उस ज़माने मे मूहोम्मद फ़ज़ल के पड़ौस में एक शक्स रहा करता था। जिसका नाम अब्दुल हयी था, जिससे मुहहोम्मद फ़ज़ल की अनबन रहती थी मगर वो काफी रसुखदार था तो मूहोम्मद फ़ज़ल सीधे तौर पर उस से कुछ नहीं कह पाते थे. जब उनके घर लड़के का जन्म हुआ तो उन्होने उसका नाम अब्दुल हयी रख दिया, और वो उसको खूब बुरा भला कहता जब अब्दुल हयी कुछ कहता तो वो कहता वो अपने लड़के को कह रहा है उसको नहीं. और इस तरह से वो अपने मन की भड़ास निकाला करता इस तरह अजीब से हालात में साहिर का बचपन बीत रहा था, साहिर का जन्म वैसे तो ज़मीनदार परिवार में हुआ बहुत संपत्तियाँ थीं मगर उनके पिता की ग़लत हरकतों की वजह से सब कुछ धीरे धीरे बर्बाद हो गया। दिन ब दिन उनकी ग़लत आदतों में बढ़ोतरी ही होती चली गई आखिरकार तंग आकर उनकी माँ बेग़म सरदार ने उनका घर छोड दिया. और अपने भाई के पास रहने चली गईं बात यहाँ तक बिगड़ गई की उन्होने तलाक़ ले लिया और साहिर को अदालत ने उनकी माँ को सौंप दिया ताकि उनके उनकी परवरिश सही तरीके से हो माँ के देख रेख में.

साहिर की शुरुवाती पढ़ाई लिखाई लुधियाना के खालसा हाई स्कूल से हुई और फिर आगे की पढ़ाई लुधियाना के ही चंदर धवन शासकीय कॉलेज से हुई। उनकी माँ चाहती थीं की साहिर बड़े होकर डॉक्टर या जज बने और वो इसके लिए बहुत कोशिश किया करती थीं की, साहिर अपनी पढ़ाई उसी दिशा में करें मगर फिर अब्दुल हयी को तो बनाना था साहिर लुधियानवी औरउसके लिए वो अपनी ही राह पर चल रहे थे। वो अपनी माँ से बहुत प्यार करते थे वो उनकी बहुत इज्ज़त किया करते और उनकी हर बात मानते थे.

उन्हे बचपन से ही शायरी का शौक था और उन्हे दशहरे के मेलों में होने वाले नाटक बहुत पसंद थे, नन्ही सी उम्र में उन्हे उस इलाके के एक शायर मास्टर रहमत की लिखे एक एक शेर ज़ुबानी याद थे उन्हे किताबें पढ़ना बहुत पसंद था। वो शायरी के अलावा भी अलग अलग विषयों की किताबें पढ़ा करते थे उनकी याददाश्त बहुत अच्छी थी वो एक बार जो पढ़ या सून लेते वो उनको याद हो जाया करती थी. दूसरों की शायरी पढ़ते पढ़ते उन्हे भी शायरी लिखने का शौक जागा और वो भी शायरी करने लगे उनदिनों वो खालसा स्कूल में पढ़ा करते थे. वहाँ उनके उस्ताद थे फ़ैयाज़ हिरयानवी शायरी के लिए साहिर उनको अपना उस्ताद मानते थे, उन्होने ही साहिर को उर्दू और शायरी की तालिम दी.


अब्दुल हयी का साहिर लुधियानवी बनना



अब्दुल हयी के साहिर लुधियानवी बनाने का भी एक बहुत ही दिलचस्प किस्सा है और वो कुछ यूं है की, सन 1937 में जब वो अपनी मैट्रिक की पढ़ाई कर रहे थे। तब उन्होने अपनी किताब में मशहूर शायर अल्लामा इकबाल की एक नज़्म पढ़ी जो दाग़ दहेलवी की तारीफ में अल्लामा इकबाल ने लिखी थी. वो नज़्म ये थी की-

चल बसा दाग, अहा! मय्यत उसकी जेब-ए-दोष है
आखिरी शायर जहानाबाद का खामोश है
इस चमन में होंगे पैदा बुलबुल-ए-शीरीज भी
सैकडों साहिर भी होगें, सहीने इजाज भी


ये नज़्म साहिर को बहुत पसंद आई और इस नज़्म में साहिर लब्ज़ उनके दिमाग़ में घर कर गया जो की उर्दू का एक शब्द है इस शब्द का मतलब होता है जादूगर, अब्दुल ने अपने नाम को बादल कर साहिर कर लिया और अपने शहर का नाम साथ में जोड़ दिया । इस तरह वो अब्दुल हयी से बन गए साहिर लुधियानवी.

 
साहिर लुधियानवी और अमृता प्रीतम की कहानी


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इश्क़ का रंग वो रंग है जो सदियों से एक सा है न ये गहरा हुआ है न ही हल्का हुआ. एक हल्की हल्की सी चुभन हर किसी के दिल में कहीं न कहीं होती है बस ज़रूरत है दिल के किसी खास नस पर उंगली रखने की, कहते हैं इश्क़ वो ही सच्चा हुआ करता है जो मुकम्मल न हो सके या दूसरे तरीके से समझे तो वो ही पहुँच पाता है। इश्क़ की मंज़िल में जो राह में ही गुम हो जाए बात समझनी ज़रा सी मुश्किल है, और ये बात वही समझ सकता है इसने कभी खुद के वजूद को मिटा कर किसी को चाहा हो.

इसी तरह के अजीब सी राहों से गुज़रा साहिर और अमृता का इश्क़। जो किसी मंज़िल तक कभी पहुँच ही न सका भले ही आज साहिर और अमृता इस दुनियाँ में नहीं है मगर उनका इश्क़ का सफर आज भी जारी है. यानि उन्होने जो इश्क़ किया वो उन्हे आज भी ज़िंदा रखे हुए हैं और आने वाली कई पीढ़ियों के मुसाफिरों को वो राह दिखाया करेंगी की, किस राह से चल कर मंज़िल मिलेगी और किस राह में चल कर वो फना हो जायेंगे.
 इश्क़ के ये दो राही मिले थे लाहौर और दिल्ली के बीच एक जगह जिसका ना इतेफ़ाक़ से प्रीतनगर था. सन 1944 में जब साहिर का नाम शायरी के आसमान में हल्का हल्का मशहूर हो रहा था, तब वो वहाँ गए थे किसी मुशायरे के लिए जहां उनकी मुलाक़ात हुई अमृता प्रीतम से। एक छोटे से कमरे में कुछ शायर और उनमे ये दोनों रोशनी कम थी तो इतनी की एक दूसरे के चेहरे बस समझ आ रहे थे, दोनों की आँखें एक दूसरे तक बार बार आकर लौटने लगीं बस ये हल्की सी रौशनी ने हल्की सी चिंगारी का काम किया वहाँ। और दोनों के दिलों में एक शम्मा जल उठी इस शम्मा की दहक में अमृता ये भी भूल गईं की वो पहले से शादी शुदा हैं, उनकी शादी बचपने में ही तय कर दी गई थी और उनके शौहर का नाम था प्रीतम सिंह। मगर कुछ वजहों से अमृता अपनी शादी से खुश नहीं थीं.

अब एक मसला ये था की अमृता रहतीं थीं दिल्ली में और साहिर रहा करते थे लाहौर में, तो मुलाक़ात तो मुश्किल ही हुआ करती थी उन दिनों बस एक ज़रिया था ख़त जिसके ज़रिये ये दोनों एक दूसरे से बातें किया करते थे. और अपने एहसास को एक दूसरे तक पहुंचा सकते थे काम ये ज़रा मुश्किल था मगर इश्क़ फिर इश्क़ है कहाँ वो दूरियों की और पैरों की बेड़ियों की परवाह किया करता है.          

अमृता प्रीतम के खतों से पता चलता है की वो साहिर के इश्क़ में दीवानगी की हद पार कर चुकीं थीं, वो उन्हे प्यार से मेरा शायर,मेरा महबूब, मेरा देवता और मेरा ख़ुदा कहा करतीं थीं। अपनी लिखी किताब रसीदी टिकट में अमृता लिखतीं है की 'जब हम मिलते थे, तो जुबां खामोश रहती थी. नैन बोलते थे दोनो  एक दूसरे को बस एक टक देखा करते थे, इस मुलाक़ात के तमाम वक़्त साहिर सिगरेट पिया करते एक के बाद के लगातार और जब वो चले जाते तब अमृता वो सिगरेट के बचे हुए बुझे टुकड़ों को अपने होंठों से लगा लिया करतीं थीं. अमृता इस कदर उनके प्यार में पागल हो गईं की वो अपने पति से अलग होने के लिए भी राज़ी हो गईं और फिर कुछ अरसे बाद वो अपने पति से तलाक लेकर अलग भी हो गईं और दिल्ली में रहने लगी। अकेले और अपने लिखने के शौक और साहिर के प्यार के सहारे ज़िंदगी जीने लगीं ऐसा नहीं था की, साहिर अमृता से कम प्यार करते थे उन्होने कई ग़ज़लें नज़्में गीत अमृता के लिए लिखीं मगर साहिर ने कभी खुले तौर पर अमृता को अपनाने की कोशिश की न ही कोई पहल की. इसकी एक वजह शायद उस वक़्त के एक पेंटर इमरोज़ भी थे जो की अमृता के बहुत पुराने दोस्त थे, वो सन 1964 में मुंबई साहिर से मिलने इमरोज़ के साथ गई थीं किसी और मर्द के साथ अमृता को साहिर नहीं देख सके उन्हे ये बर्दाश्त नहीं हुआ।

इसी दरमायान ये रिश्ता टूटने के कगार पर आ गया जब सहीर का दिल एक बार फिर किसी पर आ गया, और इस बार आया गायिका सुधा मल्होत्रा पर मगर ये प्यार एक तरफा रहा.

साहिर के करीबी दोस्त ये किस्सा सुनते हैं की, एक बार वो किसी काम के सिलसिले में वो साहिर से मिलने के लिए उनके घर गए वहाँ बात चित के दरमायान उनकी नज़र एक कप पर पड़ी, वो बहुत गंदा सा धूल में साना हुआ एक कप था तो वो अचानक उठे और उस कप की तरफ बढ़ते हुए कहने लगे की क्या है साहिर कितना गंदा सा कप तुमने रखा हुआ है। चलो तुम नहीं करते तो मैं आज इसको साफ कर देता हूँ, इतने में साहिर झट से उठे और कप और उनके बीच आ गए और कहा खबरदार इस कप को हाथ न लगाना ये वो कप है जिससे कभी अमृता ने चाय पी थी.

 
साहिर की तल्खियाँ


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साहिर का एक दीवान (काव्य संग्रह) तल्खियाँ प्रकाशित हुआ जो बहुत मशहूर हुआ। साहिर की ज़िंदगी में 25 बार छपी गई जिनमे 14 बार हिन्दी में और बाकी बार कई ज़बानों में जैसे रूसी अंग्रेज़ी भाषाओं में। पाकिस्तान में आज भी ये आलम है की जब भी कोई प्रकाशक पाकिस्तान में प्रकाशन शुरू करता है अपने यहाँ तो वो पहली किताब तल्खियाँ ही छापता है. खैर शायरी तो शायरी है उस से कहाँ पेट की आज बुझाई जा सकती है। और उनपर उनकी माँ की ज़िम्मेदारी भी थी तो अब उनको काम की ज़रूरत थी. जिसके लिए उन्होने एक पत्रिका जिसका नाम अदब –ए-लतीफ़ में एडिटर का काम तो मिल गया और उनके काम को भी खूब सराहा गया, मगर तंख्वाह इतनी नहीं थी जितनी उनकी ज़रूरत थी उन्हे वहाँ महीने के महज 40 रूपए मिला करते थे। उसी से उन्हे पूरा महिना चलना पड़ता था.

साहिर की सचिन देव बर्मन से मुलाक़ात


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साहिर ने बहुत दुख देखे यहाँ तक की गुज़र बसर के लिए उनकी माँ को चूड़ियाँ भी बेचनी पड़ीं, मगर साहिर ने कभी हिम्मत नहीं हारी मुल्क का बटवारा हुआ। सब तहस नहस हुआ और उन्होने पाकिस्तान के बदले अपना मुल्क भारत को चुना. कई परेशानियाँ उन्होने झेलीं खैर अब उनके दुखों का अंत होने ही वाला था. सचिन देव बर्मन ने कई नए नए कलाकारों को अपनी फिल्मों में मौका दिया था, वो हमेशा नए फनकारों की तलाश में रहते थे ये बात साहिर को भी पता थी। तो इस बार सचिन देव बर्मन तलाश में थे नए गीतकार की, जैसे ही साहिर को इस बात का पता चला वो उनसे मिलने चले गए मगर वो जिस होटल में ठहरे हुए थे। उसके दरवाजे पर डू नौट डिस्टर्ब का टैग लगा हुआ था, साहिर ने उसको अनदेखा कर दिया और दस्तक देते हुए कमरे के अंदर दाखिल हो गए पहले तो उनकी इस गुस्ताख़ी पर बर्मन साहब को बहुत गुस्सा आया, मगर उन्होने उनकी बात सुनी और उन्हे एक धून सुनाई और कहा चलो इसपर कोई गीत लिख के दिखाओ. तुरंत साहिर ने लिख दिया। ठंडी हवाएँ लहरा के आए गीत का मुखड़ा सुनते ही बर्मन साहब खड़े हुए और साहिर को गले लगा लिया और कहा की अब तुम ही मेरी फिल्मों में गाने लिखोगे, बाद में इस गाने को लता मंगेशकर ने अपनी आवाज़ दी नौजवान फिल्म के लिए सन 1951 में फिर सन 1951 से 1957 तक इस जोड़ी ने करीब 15 फिल्मों में कई यादगार गाने दिये.

कहा जाता है की साहिर इतने लोकप्रिय थे की, वो उस वक़्त लता मंगेशकर से भी ज़्यादा पैसे लिया करते थे गाने लिखने के. इस बात से खफा होकर लता ने उनके लिखे गाने गाने से माना कर दिया था। उन्होने नौशाद ,ख्ययाम के साथ भी बहुत काम किया 1959 में बर्मन साहब के साथ जोड़ी टूटने के बाद बी. आर चोपड़ा की सारी फिल्मों में उन्होने ही गाने लिखे, 1956 में ये जोड़ी बनी थी फिल्म नया दौर के बनने के वक़्त से. एक किस्सा ये है की, एक बार बी.आर चोपड़ा के छोटे भाई यश चोपड़ा मुंबई घूमने आए उन्होने किसी अभिनेत्री या अभिनेता से मिलने की बजाए साहिर से मिलने का इज़हार किया अपने बड़े भाई से. जब यश चोपड़ा ने अपनी फिल्म दाग बनाई तो, उसमें उन्होने साहिर से गाने लिखवाये मगर साहिर ने उनसे पैसे लेने से माना कर दिया. बी.आर चोपड़ा की ज़िद की वजह से लता ने फिर साहिर के लिखे गाने गाने के लिए हामी भरी. साहिर की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है की, साहिर का नाम रेडियो में प्रसारित होने वाले फरमाइशी गानो में बतौर फरमाइश लिया जाता था। साहिर ने ही गानों की रॉयल्टी गीतकारों को . 

फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड उन्हे दो बार मिला पहली बार मिला 1964 में फ़िल्म ताजमहल के लिए, और दूसरी बार 1976 कभी कभी फ़िल्म के गानो के लिए. सन 1971 में उन्हे भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से भी नवाजा गया.

साहिर का दुनियाँ से जाना 


सन 1976 में उनकी जान से प्यारी अम्मी का इंतेकाल हो गया, वो इस दर्द से टूट गए अभी ज़रा सा संभले ही थे की, उनके बहुत करीबी दोस्त जाँ निसार अख्तर का भी साथ छुट गया। जैसे तैसे उन्होने खुद को संभाला मगर अब वो किसी से मिलते नहीं थे न ही कुछ लिखते थे। उन्होने एक बार यश चोपड़ा से कहा था की अब लिखने में मज़ा नहीं आता, इसी बीच उन्हे दिल का दौरा पड़ा और 25 अक्तूबर 1980 के दिन ये एक महान शायर अपनी गीतों और अपनी कहानियों को छोड कर चला गया.     

साहिर के लिखे कुछ मशहूर गीत जिनमे आज भी वही ताज़गी है जो उस वक़्त थी जब वो लिखे और गाये गए थे-

1.        जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार को प्यार मिला
2.        ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात की रात
3.        मेरे दिल मे आज क्या है तू कहे तो मैं बता दूँ
4.        जब भी जी चाहे नई दुनियाँ बसा लेते हैं लोग
5.        ग़ैरों पे करम अपनों पे सितम
6.        तुम अगगर साथ देने का वादा करो
7.        हम इंतज़ार करेंगे तेरा क़यामत तक खुदा करे
8.        मैंने शायद तुम्हें पहले भी कहीं देखा है
9.        रंग और नूर की बारात किसे पेश करूँ
10.     किसी पत्थर की मूरत से इबादत का इरादा है
11.      मैं हर एक पल का शायर हूँ
12.     साथी हाथ बढ़ाना
13.     बाबुल की दुआएं लेती जा
14.     चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों

Biography of Tipu Sultan in hindi


           
                भारत एक ऐसा मुल्क है जिसका इतिहास हमेशा से योद्धाओं से भरा हुआ रहा है, इतिहास के हर पन्ने पर आपको भारत के योद्धाओं का नाम मिलता रहेगा यहाँ एक तरफ जहां महारणा प्रताप जैसे सुरमा हुए वहीं यहाँ टीपू सुल्तान जैसे योद्धा भी हुए हालांकि इनके नाम के साथ अब कई विवाद जुड़ गए है, मगर फिर भी भारत के लिए जो उन्होने ने किया उसको भुलाया नहीं जा सकता.

20 नवम्बर 1750 ईस्वी कर्नाटक के देवनाहल्ली में एक ग़ैर मामूली बच्चे का जन्म हुआ नाम रखा गया उनका सुल्तान फतेह अली खान शहाब जिनको आज हम टीपू सुल्तान के नाम से जानते है। उनके वालिद का नाम हैदर अली और उनकी वालिदा का नाम फखरुनिसा था, हैदर अली मैसूर साम्राज्य में एक मामूली से सैनिक थे, लेकिन अपनी सोच समझ और युद्ध कुशलता की वजह से वो मैसूर साम्राज्य के तख़्त तक जा बैठे. फ्रांसीसी और अंग्रेज़ दोनों का भारत के अलग अलग क्षेत्रों पर कब्ज़ा था अंग्रेजों को हारने के लिए हैदर अली ने फ़्रांसीसियों का साथ लिया। और तोप, तलवारों और बंदूकों से पूरी तरह लैस एक सेना की टुकड़ी के सहारे 1749 मेन हैदर अली ने मैसूर के साम्राज्य पर कब्जा कर लिया। वहाँ के राजा नंजराज की जगह ले ली और 1761 मेन हैदर अली मैसूर के शासक बन गए, उस समय के मशहूर राजा कृष्णराज वाडियार और मैसूर पर उनका अधिकार हो गया। फिर हैदर अली ने कनारा, बदनौर और दक्षिण के कई क्षेत्रों को अपने साम्राज्य में मिला लिया.


 टीपू सुल्तान

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टीपू सुल्तान योद्धा था और बहुत ही बुद्धिमान भी था सिर्फ 17 साल की छोटी सी उम्र में ही टीपू सुल्तान ने अपना पहला युद्ध लड़ा था, उसके नाम के साथ कई किस्म की बातें जुड़ी हैं एक पक्ष कहता है की वो देशद्रोही,बलात्कारी और क्रूर शासक था और दूसरा पक्ष कहता है की, वो एक नेक आदमी और अच्छा शासक था जिसने अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी और हमेशा देश के पार्टी ईमानदार रहा.

 
टीप सुल्तान के नाम के साथ जुड़ी बदनामियाँ


अभी कुछ समय से ये माना जाने लगा है की, आज तक जो भी हमने इतिहास पढ़ा और पढ़ाया है वो ग़लत है वो किसी खास सोच के तहत लिखा गया इतिहास है . और इस पक्ष के मानने वाले ये कहते हैं की, टीपू सुल्तान का भी इतिहास बदल कर हमारे सामने पेश किया गया आरएसएस के एक बहुत प्रसिद्ध विचारक हैं राकेश सिन्हा जो कहते हैं की, खुद टीपू सुल्तान ने ये कहा था की “मैंने लाख से ज़्यादा हिंदुओं का धर्मांतरण करवाया था तलवार के ज़ोर पर और उन्हे मजबूर किया की वो इस्लाम कुबूल कर लें”. टीपू सुल्तान की जो छबि आज तक हम देखते आए हैं इस पक्ष के हिसाब से वो ऐसा बिलकुल नहीं था, वो हिन्दू और ईसाई महिलाओं के साथ ज़बरदस्ती किया करता था. और अपनी सनाओं को भी ऐसा करने की उसने पूरी छुट दे रखी थी। साथ ही साथ वो मंदिरों और चर्चों को भी नुकसान पहुंचता था उसने अपने शासन काल के दौरान कई मंदिरों को और चर्चों को तोड़ा और उसकी जगह मस्जिदों का निर्माण करवाया. टीपू सुल्तान के शासन काल में उसने एक कुर्ग अभियान की शुरुवात की जिसके तहत उसने लगभग 1 हज़ार हिंदुओं का एक ही दिन में धर्मांतरण करवाया और उन्हे मजबूर करके इस्लाम धर्म कुबूल करवाया. इस बात की तसदीक विलियम लोगान की किताब “ वायसेस ऑफ द ईस्ट” से भी होती है.

टीपू सुल्तान के पक्ष की बातें

 
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टीपू सुल्तान के कपड़े और शस्त्र 

एक पक्ष ऐसा भी ही जो कहता है की टीपू सुल्तान न सिर्फ एक अच्छा और नेक दिल इंसान था बल्कि वो एक बुद्धिमान और अच्छा शासक भी था। उसने अपने शासन काल में बहुत से सामाजिक काम किए जिनसे जनता को लाभ पहुँच सके, 1782 से लेकर 1799 तक टीपू सुल्तान नें मैसूर का साम्राज्य संभाला और वो वहाँ के सुल्तान रहे। टीपू सुल्तान को “शेर -ए- मैसूर कहा जाता था, वो बहुत ही बुद्धिमान और कुशल योद्धा था उसको दुनियाँ का पहला मिसाइल मैन कहा जाता है, उसने अपने शासन काल में दुश्मनों पर हमला करने के लिए रॉकेट का आविष्कार किया था. जो उसके पहले कभी किसी ने नहीं किया था आज भी लंडन के एक म्यूज़ियम में टीपू सुल्तान के द्वारा बनाए गए कुछ रॉकेट सुरक्षित रखे हुए हैं जीन्हे अंग्रेज़ अपने साथ 18वीं सदी में ले गए थे, इन्ही राकेटों से प्रेरणा लेकर आज के रॉकेट बनाए जाते हैं। भारत के मशहूर वैज्ञानिक डॉ. ए पी जे अब्दुल कलाम जिन्हे रॉकेट मैन कहा जाता है, उन्होने एक किताब लिखी थी “विंग्स ऑफ फ़ायर “ उस किताब में उन्होने ज़िक्र किया है की, जब वो NASA गए थे तब उन्होने वहाँ एक सेंटर में टीपू सुल्तान की रॉकेट की एक पेंटिंग देखि थी जिसे उनके सैनिकों के साथ दर्शाया गया था. हैदर अली और टीपू सुल्तान ने इन रोकेटों का बहुत इस्तेमाल किया अपने वक़्त में, ये लंबाई में छोटे होते मगर इनकी  मारक क्षमता बहुत अच्छी और सटीक होती थी, लोहे के पाइपों में तलवारों का इस्तेमाल किया जाता था जिसे वो और भी खतरनाक हो जाते थे और इस रॉकेट से 3से 4 किलोमीटर तक हमला किया आ सकता था ये इतनी दूरी तक भी काफी कारगर साबित हुआ करते थे. कई  इतिहासकारों का मानना है की पोल्लीलोर की लड़ाई के दरमायान इन्ही रोकेटों ने हार को जीत में बदल दिया था.

राम के नाम की अंगूठी


आज भले ही टीपू सुल्तान के नाम पर राजनीति की जा रही हो और ये कहा जाता है की, टीपू सुल्तान हिंदुओं का दुश्मन था वो उनको नापसंद करता था और जब भी मौका मिलता वो हिंदुओं को ज़बरदस्ती इस्लाम कुबूल करने पर मजबूर किया करता था. मगर एक बात ऐसी है जो इस बात को ग़लत साबित करती है और वो बात ये है की टीपू सुल्तान हमेशा अपनी उंगली में जो अंगूठी पहनता था, उसमें श्री राम का नाम गढ़ा हुआ था वो बहुत ही खूबसूरत सी अंगूठी थी। जिसे टीपू सुल्तान हमेशा पहने रहता था, श्रीरंगपट्टनम में अंग्रेजों और टीपू सुल्तान के बीच हुई घमासान लड़ाई में टीपू सुल्तान शहीद हो गया उसके बाद अंग्रेजों ने उसकी जान से अज़ीज़ अंगूठी को उसकी उंगली काट के निकाला और अपने साथ ले गए.

 टीपू सुल्तान की तलवार

 
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टीपू  सुल्तान की तलवार

टीपू सुल्तान की तलवार बहुत मशहूर थी इसके नाम से दूरदर्शन पर धारावाहिक भी आया करता था 90 के दशक में .उस धारावाहिक का नाम था “The Sword of Tipu Sultaan”. टीपू सुल्तान की तलवार के बारे में कहा जाता है की, उसका वज़न 7 किलो और 400 ग्राम का था. उस तलवार पर कई महंगे पत्थरों से बाघ की आकृति बनी हुई थी, टीपू सुल्तान से जुड़ी हर चीज़ पर मुख्य रूप से बाघ की आकृति बनी हुई होती थी. जब टीपू सुल्तान शहीद हुए तो उनकी तलवार और बाकी सारा सामान अंग्रेज़ अधिकारी अपने साथ लंदन ले गए। उनके तलवार की नीलामी लंदन के बॉनहैम्स नीलाम घर में हुई उनके तलवार की नीलामी 21 करोड़ रुपयों में हुई, जिसे भारत के शराब व्यवसायी विजय माल्या ने ख़रीदा था। तलवार के साथ टीपू की और 30 से ज़्यादा सामानो की भी नीलामी की गई थी जिसमें बहुत खूबसूरत नक्काशीदार तरकश (तीर रखने का सामान) पिस्टल खूबसूरत तोपेंबंदूकें वगैरह शामिल थीं.

दूसरे धर्मों का आदर

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टीपू सुल्तान की पिस्टल

वैसे तो टीपू सुल्तान धर्म से मुस्लिम था. मगर वो अन्य धर्मों की भी पूरी तरह से इज्ज़त किया करता था वो किसी किस्म के भेद भावे में यकीन नहीं करता था. कई इतिहासकारों का मानना है की, टीपू सुल्तान हर साल अपने इलाके के कई मंदिरों एवं तीर्थ स्थानों को दान दिया करता था, और अगर कभी  किसी किस्म का कोई धार्मिक विवाद हो जाए तो वो उन मामलों की खुद सुनवाई करता। मध्यस्तता करके उनका निपटारा किया करता उसने आपने साम्राज्य में कई ऐसे लोगों की नियुक्ति की थी जो अपने अपने इलाके के मंदिरों और दार्शनिक स्थलों की देखरेख और उनको सुरक्षित रखते थे। ये उस इलाके के प्रतिष्ठित ब्रामहण हुआ करते थे  उन्हे श्रीमतु देवास्थानादसिमे कहा जाता था.

अंग्रेजों की हिट लिस्ट

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टीपू सुल्तान की नोट बूक जो विक्टोरिया मेमोरियल में रखी हुई है 

उस जमाने में अंग्रेजों ने एक लिस्ट तैयार की हुई थी जिसमें वो अपने दुश्मनों के नाम दर्ज किया करते थे। जिसमें टीपू सुल्तान का भी नाम लिखा हुआ था उन्होने, 18 वीं सदी में जब अंग्रेज़ अपने कंपनी का विस्तार कर रहे थे तब उस वक़्त उनका सामना दक्षिण के इस शेर से हुआ जिसे शेरे मैसूर कहा जाता था, उस वक़्त उसने बहुत दिनों  तक अंग्रेजों को अपनी सीमाओं के अंदर आने से रोके रखा था, बार बार अंग्रेजों को टीपू सुल्तान से हार का सामना करना पड़ता था इस वजह से उन्होने टीपू सुल्तान का नाम अपने 10 दुश्मनों की लिस्ट में रखा था।अपने 17 सालों के शासन काल में टीपू ने अग्रेज़ों को लोहे के चने चबवा दिये थे.


व्यापारिक सूझ बुझ


टीपू सुल्तान ने कई बांधों और नहरों का निर्माण करवाया, जिससे उस इलाके में खेती का काम सुचारु रूप से किया जा सके और वहाँ के किसानो की आय और जीवन शैली में सुधार हो सके। मैसूर शुरू से रेशम चावल और चन्दन के उत्पादन का प्रमुख केंद्र रहा है, इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए टीप सुल्तान ने विदेशों से व्यापार करने के लिए 30 से ज़्यादा व्यापारिक केन्द्रों का निर्माण किया.
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टीपू सुल्तान की तोप जो लंदन के मीयुज़ियम में रखी हुई है 


टीपू सुल्तान ने एक बार कहा था की “ मेमने की तरह जीने से अच्छा है शेर की तरह मर जाऊँ “

Biography of Faraz Ahmad (फ़राज़ अहमद की ज़िंदगी )


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फ़राज़ अहमद


फ़राज़ अहमद एक ऐसा नाम है शायरी और ग़ज़ल की दुनियाँ में जो ख़ुद अपने आप में एक पूरी की पूरी नज़्म है. शायद ही कोई ऐसा शायरी का दीवाना हो जिसने इनका का नाम न सुना हो, नाम अगर ना भी सुना हो तो इनकी ग़ज़लें ज़रूर गुनगुनाई होंगी। हाँ ये हो सकता है की आपको ये पता ना हो की आप किस शायर की ग़ज़ल के शेर गुनगुना रहे हैं. अब के बिछड़े तो शायद कभी ख्वाबों में, मिलें जैसे सूखे हुए फूल किताबों में मिलें। क्या आपने कभी ये ग़ज़ल सुनी है अगर हाँ तो ये था तरीका दर्द कहने का फ़राज़ का. तो आइए जाने क्या थी फ़राज़ की ज़िंदगी.


फ़राज़ की शुरुवाती ज़िंदगी



12 जनवरी 1931 का दिन था, और उस वक़्त मुल्क़ का एक नाम था हिंदुस्तान जो बदक़िसमती से आज दो मुल्कों में बंट गया, एक हिंदुस्तान और एक का नाम है पाकिस्तान. तो आज के पाकिस्तान में नौशेरा शहर के कोहाट में एक ग़ैर मामूली बच्चे की पैदाइश सैयद मुहम्मद शाह बार्क के घर. उनका नाम रखा गया अहमद शाह कोहाटी, पढ़ने लिखने में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं थी उनकी मगर उनके वालिद चाहते थे की, उनका बेटा यानि अहमद शाह साइंस की पढ़ाई पढे और आगे चल कर किसी कॉलेज में साइंस पढ़ाएँ और अपनी ज़िंदगी गुज़ारे, मगर फिर अहमद शाह कभी फ़राज़ अहमद नहीं हो पाते, उनका मन शुरू से शायरी में लगता था। वो अपने खाली वक़्त में ग़ज़लें लिखा करते और इस शौक के चलते उन्होने पेशावर के मशहूर एडवर्ड कॉलेज से उर्दू और फारसी में M.A. की डिग्री हासिल की हालांकि उनकी ख़ानदानी ज़ुबान कभी उर्दू या फारसी नहीं रही, वो पाकिस्तान और अफगानिस्तान में बोली जाने वाली पश्तो भाषा बोलने वाले ख़ानदान से थे. फ़राज़ ने अपनी 9 क्लास से ही शायरी करनी शुरू कर दी थी, उनके वालिद के एक दोस्त हुआ करते थे उस ज़माने में उनकी लड़की से उन्हे इश्क़ हो गया था। वो उस वक़्त 10 वी क्लास में पढ़ा करती थी वो एक दूसरे को शेर सुनाया करते थे, जिसमे वो अक्सर जीत जाया करती थी फ़राज़  जितनी भी गजलें याद करते और दूसरे दिन उनका मुकाबला उस लड़की से होता मगर वो लड़की उनसे फिर जीत जाती. तब फराज़ ने सोचा की अब अपनी ही ग़ज़ल लिखी जाए और उन्होने अपनी ग़ज़लने लिखनी शुरू कर दीं, उनके वालिद ख़ुद भी फारसी और उर्दू के बड़े शायरों में से थे उनके घर शायरों का आना जाना लगा रहता था। वो उनकी महफ़िलों में बैठा करते और उनकी शायरी सुना करते एक बार ऐसी ही किसी शाम फ़राज़  ने डरते डरते अपनी वालिदा को अपना लिखा एक शेर दिया और कहा की वो उनके वालिद को दे पढ़ने को दी उन्होने फ़राज़ को खूब डांटा कहा अभी पढ़ाई पर ध्यान दो, खैर फ़राज़  को नज़्म बहुत पसंद थी मगर उन्होने सारे किस्म की शायरी की और ये एक दिलचस्प बात है की, उन्हे उर्दू बोलने आती नहीं थी वो लिख तो लेते थे मगर बहुत दिनों तक उन्हे उर्दू बोलने नहीं आई.

रेडियो और फ़राज़ 



सन 1950 के दौर में एक मुशायरे के दरमायान पाकिस्तान ब्रोडकास्ट के जनरल सेक्रेटरी बुखारी आए हुए थे, और फ़राज़ अपनी ग़ज़लें सुना रहे थे उन्होने उन्हे एक और ग़ज़ल सुनाने को कहा फ़राज़ ने सुना दी, उन्होने सून कर कहा बेटा फ़राज़ जब मन हो रेडियो में काम करने का तो कराची आ जाना, कुछ दिनों बाद वो वहाँ चले गए उनका काम था रेडियो प्रोग्राम के लिए स्क्रिप्ट लिखना। मगर उनका मन वहाँ कराची में लगता नहीं था वो पहली बार इतने दिनों तक पेशावर से दूर रहे थे, एक बार बहुत बीमार पड़ गए फिर एक दिन वो अपने डाइरेक्टर कुतुब साहब जिनका नाम था के पास गए, और कहा की आप मेरा इस्तीफा ले लीजिये या मेरा ट्रान्सफर कर दीजिये अब मैं यहाँ काम नहीं कर सकता। तो उन्होने ने कहा ठीक है मैं बात करता हूँ और उन्होने उनका ट्रान्सफर पेशावर कर दिया. फिर वो रेडियो में ही रहे मगर पेशावर से काम किया. बाद में वो फिर पेशावर यूनिवर्सिटी में उर्दू के प्रोफेसर के तौर पर काम करने लगे. फराज़ को शायरी के अलावा बेड्मिटन, टेनिस और हॉकि खेलने का भी शौक था और वो रोजाना मोर्निग वॉक पर जाया करते थे.


ज़िया उल हक़ का ज़माना और फ़राज़ 



बहुत आम ज़बान में शायरी किया करते थे जो आसानी से सबको समझ में आ जाया करती,फ़राज़ शुरुवाती जमाने में इक़बाल की शायरी से बहुत मुतासीर थे। उसके बाद तरक्कीपसंद शायरी की ओर उनका झुकाओ बढ़ गया इस वजह से उन्हे अली सरदार ज़ाफरी और फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ पसंद आने लगीं. और उन्होने उनके तर्ज़ पर शायरी करने लगे. उस वक़्त पाकिस्तान में ज़िया उल हक़ का ज़माना था, जिनके काम करने के अंदाज़ से तरक्कीपसंद शायरों ने उनके खिलाफ बहुत लिखा और फ़राज़ भी उनमें से एक शायर थे उसकी वजह से फ़राज़ को जेल भी जाना पड़ा और बाद में उन्हे देश निकाला दे दिया गया 6 साल तक वो अपने मुल्क़ पाकिस्तान से बाहर रहे उस दरमयान वो ब्रिटेन, कनाडा और यूरोप में रहे.


फ़राज़ और और उनकी शोहरत



जब भी बात होती है उर्दू शायरी की तो सबसे पहले आम तौर पर ग़ालिब ,इकबाल का नाम आता है, मगर इनके बाद अगर किसी ने अपनी शायरी से नाम कमाया है तो वो नाम है फ़राज़ अहमद का उनके लिखने का अंदाज़ ही कुछ निराला था, वो जज़्बातों को अपने हर्फों में कुछ इस तरह ढाल लेते थे। की जो पढे उसको ऐसा महसूस होता जैसे उन्होने वो शेर उसके लिए ही लिखा था, जो उसको पढ़ रहा है. मूहोब्बत इश्क़ मिलना बिछड़ना दर्द ये सब उनकी ग़ज़लों नज़मों में ऐसे आते के एहसास को सहला देते पढ़ने वाले के। आज भी उनकी शायरी में वो दर्द ताज़ा है वही ताजगी लिए एक एक शेर ज़िंदा है उनका. जो शौहरत फ़राज़ को हासिल है हिंदुस्तान और पाकिस्तान में वो शायद किसी और शायर को नसीब नहीं हुई।


फ़राज़ का दुनियाँ से जाना



25 अगस्त 2008 के दिन ये शायरी का दूसरा नाम फ़राज़ अपनी क़लम को छोड़ कर दुनियाँ से चला गया. इस्लामाबाद के एक हॉस्पिटल में किडनी की बीमारी की वजह से उन्होने आखरी सांस ली। हम सब उनकी शायरी के मुरीद और ख़ुद उर्दू शायरी उनको अपनी अपनी ज़िंदगी के आख़री दिन तक याद करते रहेंगे.



फराज़ अहमद के ग़ज़लों की किताबें जो आप खरीद सकते हैं 



Biography of Bulleh shah in hindi (बुल्ले शाह की जीवनी)


बुल्ले शाह


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            “बुल्ले शाह” यानि अब्दुल्लाह शाह पंजाबी शायरी के सरताज के तौर पर जाने जाते हैं, उन्होने ईश्वर और इंसान के बीच की खाई को सूफीवाद से पाटने का रास्ता दिखाय उनकी शायरी में खुदा का खौफ़ नहीं दिखाया गया है, वो ख़ुदा से प्यार करने के हिमायती रहे और उन्होने अपनी शायरी में भी इसका भरपूर ज़िक्र किया सूफ़ीवाद जो है वो ईश्वर और उसके पूजने वाले के बीच एक ऐसी कड़ी है जो ये बताती है की कैसे अपने आप की चेतना ख़त्म करके कोई शून्य में चला जाता है और यही शून्य वो निरंकार है जिसे सब ढूंढते रहते हैं कभी मंदिरों में कभी मस्जिदों में तो कभी कलीसाओं मगर वो बसा हुआ है अपने अंदर बस ज़रूरत है खुद को उसके पास ले जाने की और ये रास्ता गुज़रता है गुरु के चरणों को छु कर और बुल्ले शाह हमेशा इसी रास्ते की बात करते रहे उनका जीवन और दर्शन उसी ईश्वर की खोज और उस रास्ते की दरम्यान गुज़रा.

बुल्ले शाह का परिवार


         बुल्ले शाह का जन्म सन 1680 के आस पास अब के पाकिस्तान में बहावलपुर के उच्च गिलनियाँ गाँव में हुआ। उनके वालिद का नाम शाह मूहोम्मद दरवेश था. बुल्ले शाह के दादा का नाम हज़रत सय्यद अब्दुर रज्ज़ाक़ था और वो सय्यद जलाल-उद-दीन बुख़ारी के वंसज थे, सय्यद जलाल-उद-दीन बुख़ारी बुल्ले शाह की पैदाइश के 300 साल पहले सुर्ख बुखारा से आकर मूलतान में बस गए थे, बुल्ले शाह के बारे में एक और बात है जो अक्सर लोगों को पता नही की वो इस्लाम के पैगंबर हज़रत मूहोम्मद सलालाहे अलेह वसल्लम की बेटी फातिमा के वंसज थे. बुल्ले शाह की शुरुवाती पढ़ाई लिखाई उनके वालिद की निगरानी में हुई और फिर उनकी आगे की पढ़ाई लिखाई का ज़िम्मा क़सूर के ख्वाजा ग़ुलाम मुर्तजा के हिस्से आई। बुल्ले शाह एक सूफी हज़रत इनायत शाह  की शागिर्दगी में थे। और इस बात का विरोध उनके घर वाले किया करते थे उनका मानना था की उनके ख़ानदान का तालूक़ मूहोम्मद साहब से है और वो आला दर्ज़े के सैय्यद हैं और हज़रत इनायत शाह ज़ात से आराइन हैं। और आराइन जाती के लोग खेती बाड़ी किया करते थे. जानवरों का व्यापार किया करते थे इसलिए कोई नहीं चाहता था की बुल्ले शाह उनके साथ किसी किस्म का कोई रिश्ता रखें मगर बुल्ले शाह जो ख़ुद एक आला दर्ज़े के सूफी थे, उन्हे इनसब बातों का कोई असर नहीं पड़ा और उन्होने उनकी शागिर्दी बदस्तूर जारी रखी.

बुल्ले शाह के सिद्धांत


             बुल्ले शाह हर किस्म की धार्मिक कटतरता और ज़ात पात के बंधनो से परे रहने की बात कहते इन्सानो और सभी धर्मों में कैसे मेल जोल बढ़े बुल्ले शाह इसके हमेशा हिमायती रहे, उन्होने अपनी शायरी के लिए पंजाबी और सिंधी ज़ुबान का इस्तेमाल किया एक अलग तरह का अलबेलापन था उनकी शायरी में जो एक आवारा सोच को बढ़ावा देता है, समाज और उसके बंधनो को तोड़ देना चाहती है उनकी सोच और सीधे सरल रस्तों पर चल कर खुदा को पाना चाहती है, वो किसी धर्म के बंधनो में बंधना नहीं चाहते थे वो खुद को खोकर खुदा को पाना चाहते थे। उनकी कही बातों को अगर ध्यान से पढ़ा जाए तो समझ आता है की जब तक खुद के वजूद को ख़त्म नहीं किया जाए खुदा नहीं मिल सकता. वो अपने अंदर ही खुदा को तलाशने की बात करते थे वो पूरी ज़िंदगी इसी राह पर चले और उसी पर चलने की बात कहते रहे. सूफियों के चार तरह के सिद्धांतों पर विश्वास करते है शरीयत,तरिकत हक़ीक़त और मग्फ़िरत इन्ही चारों सिद्धांतों पर बुल्ले शाह ने भी तमाम उम्र विश्वास रखा और इसी पर वो कायम रहे. ज़िंदगी किस तरह आसान की जाए जीने के लिए सिर्फ अपनी ही नहीं बल्कि हर एक चीज़ की चाहे वो जीवित कोई जीव हो या बेजान कोई सामान.

 
बुल्ले शाह के मुरशिद


             एक बार बुल्ले शाह अपने मुरशिद (गुरु) से मिलने गए, वहाँ पहुँच कर देखा तो हज़रत इनायत शाह अपने काम में मशरूफ़ बैठे खोये हुए थे, उन्होने बुल्ले शाह के तरफ न देखा न ही उनको ये पता चला की कोई वहाँ आया भी है बुल्ले शाह कुछ देर तक उन्हे देखते रहे और फिर थक कर वहीं ज़मीन पर बैठ कर उन्हे देखने लगे, बहुत वक़्त गुज़र जाने के बाद भी इनायत शाह अपने ध्यान में लगे रहे बुल्ले शाह खड़े हुए और इधर उधर टहलने लगे। उन्होने देखा की आम के पेड़ हैं और उसपर आम फले हुए हैं वो उन आमों को निहारने लगे कुछ ही देर में पेड़ से आम टूट टूटकर खुदबखुद गिरने लगे और उनके ज़मीन से टकरने से जो आवाज़ हुई उस से इनायत शाह का ध्यान भटका. उन्होने बुल्ले शाह की तरफ देखा और मुस्कुरा कर इशारा किया की वो उनके करीब आ जाएँ जब वो उनके करीब गए तो इनायत शाह नें उनसे कहा की क्या आपने ये आम तोड़े हैं ? इस पेड़ से बुल्ले शाह ने बड़े अदब से जवाब दिया जी नहीं मैं तो न पेड़ पर चढ़ा ना ही कोई पत्थर ही आमों की तरफ उछला मैंने ये आम नहीं तोड़े, इनायत शाह उनकी बात सुनकर मुस्कुराए और कहा “ तू चोर भी है और बहुत होशियार भी है” इतना कहना था उनका की बुल्ले शाह उनके कदम बोसी (चरण को चूमना ) को झुक गए, और कहा मैं ख़ुदा को पाना चाहता हूँ इनायत शाह ने कहा बुल्ले ख़ुदा का क्या है यहाँ भी है और वो वहाँ भी है. ये उनकी पहली सीख थी जो उनके मुरशिद ने उन्हे दी थी.

 
बुल्ले शाह के मशहूर क़िस्से



              वैसे तो ऐसे व्यक्तित्व के साथ ऐसी कई बातें और घटनाएँ जुड़ जातीं हैं, जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता मगर  फिर भी वो आम तौर पर उनके मानने वालों के बीच काफी एहमियत रखतीं हैं। कुछ ऐसी ही बातें जुड़ी हुई हैं बुल्ले शाह के साथ भी कहते हैं, एक बार बुल्ले शाह अपने मुरशिद (गुरु) के पास गए और कहा की उनको हज करने जाना है उनकी बात सूनकर इनायत शाह ने कहा क्या करोगे हज करके ? बुल्ले शाह ने जवाब दिया की वहाँ मूहोम्मद साहब का रौज़ा (कब्र)शरीफ है, उसकी ज़ियारत (दर्शन) के लिए जाना चाहते हैं, और उन्होने कहा खुद अल्लाह के रसूल मूहोम्मद साहब ने फ़रमाया है की, जो उनके रौज़े के ज़ियारत करता है वो ऐसा है जैसे उसने खुद उनको देख लिया। उनके मुरशिद ने कहा ठीक है मैं इसकी इजाज़त तुम्हें 3 दिनों बाद दूंगा बुल्ले शाह उनके इजाज़त का इंतज़ार करने लगे, तीसरी रात उनके ख़्वाब में खुद हुज़ूर मूहोम्मद साहब आए उन्होने बुल्ले शाह से कहा तुम्हारा मुरशिद कहाँ है ? जाओ तुम उन्हे बुला लाओ ! रसूललाह ने उन्हे अपने साथ बैठा लिया इस दरमयान बुल्ले शाह सर झुकाये अदब से खड़े रहे जब उनकी नज़र ज़रा सी उठी, तब उन्होने देखा की वो अपने मुरशिद का चेहरा और हुज़ूर के चेहरे मुबारक में फर्क नहीं कर पा रहे हैं, ऐसा लग रहा था जैसे दोनों शक्लें एक ही हैं।

                एक बार का किस्सा है की, बुल्ले शाह के ख़ानदान में किसी की शादी थी बुल्ले शाह ने अपने मुरशिद (गुरु) को भी दावत दी थी. मगर फ़क़ीर तो फिर फ़क़ीर होते हैं वो खुद नहीं आए। उन्होने अपने एक दूसरे मुरीद (चेला) को वहाँ भेज दिया वो मुरीद भी आराइन जाती का था, और शादी थी एक बड़े रुतबे वाले सैय्यद खानदान की वो वहाँ फटे पुराने से मैले कुचैले से कपड़े पहन कर चला गया। वहाँ उसका किसी ने ध्यान नहीं दिया न उसकी मेहमान नवाज़ी की और ये तो ये बुल्ले शाह ने भी उसकी कोई खबर नहीं ली, वो भी शादी के रस्मों में मशरूफ़ थे खैर उस मुरीद ने जाकर सारा किस्सा अपने मुरशिद को सुनाया सूनकर हज़रत इनायत को बहुत गुस्सा आया। फिर जब कुछ दिनों बाद बुल्ले शाह उनके पास गए तो उनको देखकर इनायत शाह ने पीठ फ़ेर ली और पीठ फ़ेर कर बैठ गए, और उन्होने कहा कह दो बुल्ले शाह से की मैं उसकी शक्ल तक नहीं देखना चाहता ना ही उसकी आवाज़ सुनना चाहता हूँ, बुल्ले शाह को अपनी गलती का एहसास हुआ मगर अब वो कर भी क्या सकते थे ग़लती तो उनसे हो गई थी, और सूफियों का गुस्सा आज भी बहुत मशहूर है, वो चुपचाप वहाँ से चले आए कई दिनों तक बदहवासी के आलम में रहे और कई ग़ज़लें लिखीं जो एक से बढ़कर एक थीं जिनको सूनकर आंसुओं की जगह दिल का खून निकाल जाए। बुल्ले शाह की हालत वैसी थी जैसे राँझे के लिए हीर की हो, हज़रत इनायत को कंजरियों का नृत्य और गाने बहुत पसंद थे बुल्ले शाह को ये बात पता थी उन्होने कंजरियों से नृत्य सीखा और खुद कंजरी बन गए। पैरों में घुँघरू बांध कर वो गली गली नाचने लगे गाने लगे वो नाच और गाने में जैसे खुद को भूल गए, एक जगह उर्स चल रहा था वहाँ बुल्ले शाह पहुँच गए बेख्याली के आलम में वहाँ बहुत से आसपास के फ़क़ीर इकट्ठा हुए थे. वहाँ कई कंजरी नाच रहे थे बुल्ले शाह भी उनके साथ पैरों में घुँघरू बांधे नाचने लगे गाने लगे सब थक कर बैठ गए मगर बुल्ले शाह नाचते रहे, और अपनी लिखी दर्द और जुदाई से बाहरी ग़ज़लें गाते रहे सूनने वाले उनकी दर्द से बाहरी शायरी सूनकर रोते रोते बेहाल होने लगे नाचते नाचते उनके पैरों से खून निकालने लगा. जब ये बात उनके मुरशिद को पता चली तब वो वहाँ गए और बुल्ले को रोका नाचने से और कहा की, क्या तू बुल्ला है ? बुल्ले शाह ने जवाब दिया बुल्ला नहीं भुला हूँ, ये बात सूनकर हज़रत इनायत ने बुल्ले शाह को सिने से लगा लिया और दोनों फूटफूटकर रोने लगे.

 बुल्ले शाह की प्रसिद्धि


            बुल्ले शाह ना सिर्फ पाकिस्तान बल्कि हिंदुस्तान में और जहां जहां सूफिवाद से जुड़े लोग और पंजाबी सिंधी भाषा के जानने वाले लोग है उनके बीच बहुत मशहूर हैं सड़क पर फिरने वाला भिखारी भी उनके गीत गाता है, और पाकिस्तान और हिंदुस्तान के अक्सर मशहूर गायक भी बुल्ले शाह के गीत गाता चला आया है। इनके गीतों को बॉलीवुड में भी कई फिल्मों में आज के धूनों पर गया गया है, जिसमे से “छईया छईया”, “बंदया हो बंदया”, “कतया करूँ “और न जाने कई “बुल्ला की जाना मैं कौन” जो रब्बी शेरगिल ने गया बहुत मशहूर हुआ.

रब्बी शेरगिल ने जो अपनी आवाज़ दी बुल्ले शाह को उसका एक विडियो ज़रूर सुनिए.

                             Video Courtesy - etv


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