बुल्ले शाह
“बुल्ले शाह” यानि अब्दुल्लाह शाह पंजाबी
शायरी के सरताज के तौर पर जाने जाते हैं,
उन्होने ईश्वर और इंसान के बीच की खाई को सूफीवाद से पाटने का रास्ता दिखाय उनकी
शायरी में खुदा का खौफ़ नहीं दिखाया गया है,
वो ख़ुदा से प्यार करने के हिमायती रहे और उन्होने अपनी शायरी में भी इसका भरपूर
ज़िक्र किया सूफ़ीवाद जो है वो ईश्वर और उसके पूजने वाले के बीच एक ऐसी कड़ी है जो ये
बताती है की कैसे अपने आप की चेतना ख़त्म करके कोई शून्य में चला जाता है और यही
शून्य वो निरंकार है जिसे सब ढूंढते रहते हैं कभी मंदिरों में कभी मस्जिदों में तो
कभी कलीसाओं मगर वो बसा हुआ है अपने अंदर बस ज़रूरत है खुद को उसके पास ले जाने की
और ये रास्ता गुज़रता है गुरु के चरणों को छु कर और बुल्ले शाह हमेशा इसी रास्ते की
बात करते रहे उनका जीवन और दर्शन उसी ईश्वर की खोज और उस रास्ते की दरम्यान गुज़रा.
बुल्ले शाह का परिवार
बुल्ले शाह का जन्म सन 1680 के आस
पास अब के पाकिस्तान में बहावलपुर के उच्च गिलनियाँ गाँव में हुआ। उनके वालिद का
नाम शाह मूहोम्मद दरवेश था. बुल्ले शाह के दादा का नाम हज़रत सय्यद अब्दुर रज्ज़ाक़ था
और वो सय्यद जलाल-उद-दीन बुख़ारी के
वंसज थे,
सय्यद जलाल-उद-दीन बुख़ारी बुल्ले
शाह की पैदाइश के 300 साल पहले सुर्ख बुखारा से आकर मूलतान में बस गए थे,
बुल्ले शाह के बारे में एक और बात है जो अक्सर लोगों को पता नही की वो इस्लाम के
पैगंबर हज़रत मूहोम्मद सलालाहे अलेह वसल्लम की बेटी फातिमा के वंसज थे. बुल्ले शाह की
शुरुवाती पढ़ाई लिखाई उनके वालिद की निगरानी में हुई और फिर उनकी आगे की पढ़ाई लिखाई
का ज़िम्मा क़सूर के ख्वाजा ग़ुलाम मुर्तजा के हिस्से आई। बुल्ले शाह एक सूफी हज़रत
इनायत शाह की शागिर्दगी में थे। और इस बात
का विरोध उनके घर वाले किया करते थे उनका मानना था की उनके ख़ानदान का तालूक़
मूहोम्मद साहब से है और वो आला दर्ज़े के सैय्यद हैं और हज़रत इनायत शाह ज़ात से
आराइन हैं। और आराइन जाती के लोग खेती बाड़ी किया करते थे. जानवरों का व्यापार किया
करते थे इसलिए कोई नहीं चाहता था की बुल्ले शाह उनके साथ किसी किस्म का कोई रिश्ता
रखें मगर बुल्ले शाह जो ख़ुद एक आला दर्ज़े के सूफी थे,
उन्हे इनसब बातों का कोई असर नहीं पड़ा और उन्होने उनकी शागिर्दी बदस्तूर जारी रखी.
बुल्ले शाह के सिद्धांत
बुल्ले शाह हर किस्म की धार्मिक
कटतरता और ज़ात पात के बंधनो से परे रहने की बात कहते इन्सानो और सभी धर्मों में
कैसे मेल जोल बढ़े बुल्ले शाह इसके हमेशा हिमायती रहे,
उन्होने अपनी शायरी के लिए पंजाबी और सिंधी ज़ुबान का इस्तेमाल किया एक अलग तरह का
अलबेलापन था उनकी शायरी में जो एक आवारा सोच को बढ़ावा देता है,
समाज और उसके बंधनो को तोड़ देना चाहती है उनकी सोच और सीधे सरल रस्तों पर चल कर
खुदा को पाना चाहती है,
वो किसी धर्म के बंधनो में बंधना नहीं चाहते थे वो खुद को खोकर खुदा को पाना चाहते
थे। उनकी कही बातों को अगर ध्यान से पढ़ा जाए तो समझ आता है की जब तक खुद के वजूद
को ख़त्म नहीं किया जाए खुदा नहीं मिल सकता. वो अपने अंदर ही खुदा को तलाशने की बात
करते थे वो पूरी ज़िंदगी इसी राह पर चले और उसी पर चलने की बात कहते रहे. सूफियों
के चार तरह के सिद्धांतों पर विश्वास करते है शरीयत,तरिकत हक़ीक़त और
मग्फ़िरत इन्ही चारों सिद्धांतों पर बुल्ले शाह ने भी तमाम उम्र विश्वास रखा और इसी
पर वो कायम रहे. ज़िंदगी किस तरह आसान की जाए जीने के लिए सिर्फ अपनी ही नहीं बल्कि
हर एक चीज़ की चाहे वो जीवित कोई जीव हो या बेजान कोई सामान.
बुल्ले शाह के मुरशिद
एक बार बुल्ले शाह अपने मुरशिद
(गुरु) से मिलने गए,
वहाँ पहुँच कर देखा तो हज़रत इनायत शाह अपने काम में मशरूफ़ बैठे खोये हुए थे,
उन्होने बुल्ले शाह के तरफ न देखा न ही उनको ये पता चला की कोई वहाँ आया भी है
बुल्ले शाह कुछ देर तक उन्हे देखते रहे और फिर थक कर वहीं ज़मीन पर बैठ कर उन्हे
देखने लगे,
बहुत वक़्त गुज़र जाने के बाद भी इनायत शाह अपने ध्यान में लगे रहे बुल्ले शाह खड़े
हुए और इधर उधर टहलने लगे। उन्होने देखा की आम के पेड़ हैं और उसपर आम फले हुए हैं
वो उन आमों को निहारने लगे कुछ ही देर में पेड़ से आम टूट टूटकर खुदबखुद गिरने लगे
और उनके ज़मीन से टकरने से जो आवाज़ हुई उस से इनायत शाह का ध्यान भटका. उन्होने
बुल्ले शाह की तरफ देखा और मुस्कुरा कर इशारा किया की वो उनके करीब आ जाएँ जब वो
उनके करीब गए तो इनायत शाह नें उनसे कहा की क्या आपने ये आम तोड़े हैं ?
इस पेड़ से बुल्ले शाह ने बड़े अदब से जवाब दिया जी नहीं मैं तो न पेड़ पर चढ़ा ना ही
कोई पत्थर ही आमों की तरफ उछला मैंने ये आम नहीं तोड़े,
इनायत शाह उनकी बात सुनकर मुस्कुराए और कहा “ तू चोर भी है और बहुत होशियार भी है”
इतना कहना था उनका की बुल्ले शाह उनके कदम बोसी (चरण को चूमना ) को झुक गए,
और कहा मैं ख़ुदा को पाना चाहता हूँ इनायत शाह ने कहा बुल्ले ख़ुदा का क्या है यहाँ
भी है और वो वहाँ भी है.
ये उनकी पहली सीख थी जो उनके मुरशिद ने उन्हे दी थी.
बुल्ले शाह के मशहूर क़िस्से
वैसे तो ऐसे व्यक्तित्व के साथ ऐसी
कई बातें और घटनाएँ जुड़ जातीं हैं,
जिसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं होता मगर
फिर भी वो आम तौर पर उनके मानने वालों के बीच काफी एहमियत रखतीं हैं। कुछ
ऐसी ही बातें जुड़ी हुई हैं बुल्ले शाह के साथ भी कहते हैं,
एक बार बुल्ले शाह अपने मुरशिद (गुरु) के पास गए और कहा की उनको हज करने जाना है
उनकी बात सूनकर इनायत शाह ने कहा क्या करोगे हज करके ?
बुल्ले शाह ने जवाब दिया की वहाँ मूहोम्मद साहब का रौज़ा (कब्र)शरीफ है,
उसकी ज़ियारत (दर्शन) के लिए जाना चाहते हैं,
और उन्होने कहा खुद अल्लाह के रसूल मूहोम्मद साहब ने फ़रमाया है की,
जो उनके रौज़े के ज़ियारत करता है वो ऐसा है जैसे उसने खुद उनको देख लिया। उनके
मुरशिद ने कहा ठीक है मैं इसकी इजाज़त तुम्हें 3 दिनों बाद दूंगा बुल्ले शाह उनके
इजाज़त का इंतज़ार करने लगे,
तीसरी रात उनके ख़्वाब में खुद हुज़ूर मूहोम्मद साहब आए उन्होने बुल्ले शाह से कहा
तुम्हारा मुरशिद कहाँ है ?
जाओ तुम उन्हे बुला लाओ ! रसूललाह ने उन्हे अपने साथ बैठा लिया इस दरमयान बुल्ले
शाह सर झुकाये अदब से खड़े रहे जब उनकी नज़र ज़रा सी उठी,
तब उन्होने देखा की वो अपने मुरशिद का चेहरा और हुज़ूर के चेहरे मुबारक में फर्क
नहीं कर पा रहे हैं,
ऐसा लग रहा था जैसे दोनों शक्लें एक ही हैं।
एक बार का किस्सा है की,
बुल्ले शाह के ख़ानदान में किसी की शादी थी बुल्ले शाह ने अपने मुरशिद (गुरु) को भी
दावत दी थी. मगर फ़क़ीर तो फिर फ़क़ीर होते हैं वो खुद नहीं आए। उन्होने अपने एक दूसरे
मुरीद (चेला) को वहाँ भेज दिया वो मुरीद भी आराइन जाती का था,
और शादी थी एक बड़े रुतबे वाले सैय्यद खानदान की वो वहाँ फटे पुराने से मैले कुचैले
से कपड़े पहन कर चला गया। वहाँ उसका किसी ने ध्यान नहीं दिया न उसकी मेहमान नवाज़ी
की और ये तो ये बुल्ले शाह ने भी उसकी कोई खबर नहीं ली,
वो भी शादी के रस्मों में मशरूफ़ थे खैर उस मुरीद ने जाकर सारा किस्सा अपने मुरशिद को
सुनाया सूनकर हज़रत इनायत को बहुत गुस्सा आया। फिर जब कुछ दिनों बाद बुल्ले शाह
उनके पास गए तो उनको देखकर इनायत शाह ने पीठ फ़ेर ली और पीठ फ़ेर कर बैठ गए,
और उन्होने कहा कह दो बुल्ले शाह से की मैं उसकी शक्ल तक नहीं देखना चाहता ना ही
उसकी आवाज़ सुनना चाहता हूँ,
बुल्ले शाह को अपनी गलती का एहसास हुआ मगर अब वो कर भी क्या सकते थे ग़लती तो उनसे
हो गई थी,
और सूफियों का गुस्सा आज भी बहुत मशहूर है,
वो चुपचाप वहाँ से चले आए कई दिनों तक बदहवासी के आलम में रहे और कई ग़ज़लें लिखीं
जो एक से बढ़कर एक थीं जिनको सूनकर आंसुओं की जगह दिल का खून निकाल जाए। बुल्ले शाह
की हालत वैसी थी जैसे राँझे के लिए हीर की हो, हज़रत इनायत को
कंजरियों का नृत्य और गाने बहुत पसंद थे बुल्ले शाह को ये बात पता थी उन्होने
कंजरियों से नृत्य सीखा और खुद कंजरी बन गए। पैरों में घुँघरू बांध कर वो गली गली
नाचने लगे गाने लगे वो नाच और गाने में जैसे खुद को भूल गए,
एक जगह उर्स चल रहा था वहाँ बुल्ले शाह पहुँच गए बेख्याली के आलम में वहाँ बहुत से
आसपास के फ़क़ीर इकट्ठा हुए थे. वहाँ कई कंजरी नाच रहे थे बुल्ले शाह भी उनके साथ
पैरों में घुँघरू बांधे नाचने लगे गाने लगे सब थक कर बैठ गए मगर बुल्ले शाह नाचते
रहे,
और अपनी लिखी दर्द और जुदाई से बाहरी ग़ज़लें गाते रहे सूनने वाले उनकी दर्द से
बाहरी शायरी सूनकर रोते रोते बेहाल होने लगे नाचते नाचते उनके पैरों से खून
निकालने लगा. जब ये बात उनके मुरशिद को पता चली तब वो वहाँ गए और बुल्ले को रोका
नाचने से और कहा की,
क्या तू बुल्ला है ?
बुल्ले शाह ने जवाब दिया बुल्ला नहीं भुला हूँ, ये बात सूनकर
हज़रत इनायत ने बुल्ले शाह को सिने से लगा लिया और दोनों फूटफूटकर रोने लगे.
बुल्ले शाह की प्रसिद्धि
बुल्ले शाह ना सिर्फ पाकिस्तान
बल्कि हिंदुस्तान में और जहां जहां सूफिवाद से जुड़े लोग और पंजाबी सिंधी भाषा के
जानने वाले लोग है उनके बीच बहुत मशहूर हैं सड़क पर फिरने वाला भिखारी भी उनके गीत
गाता है,
और पाकिस्तान और हिंदुस्तान के अक्सर मशहूर गायक भी बुल्ले शाह के गीत गाता चला
आया है। इनके गीतों को बॉलीवुड में भी कई फिल्मों में आज के धूनों पर गया गया है,
जिसमे से “छईया छईया”,
“बंदया हो बंदया”,
“कतया करूँ “और न जाने कई “बुल्ला की जाना मैं कौन” जो रब्बी शेरगिल ने गया बहुत
मशहूर हुआ.
रब्बी शेरगिल ने जो अपनी आवाज़ दी बुल्ले शाह को उसका एक विडियो ज़रूर सुनिए.
Video Courtesy - etv
Pleased to know about him
ReplyDelete