Biography of Firaq Gorakhpuri

फ़िराक़ गोरखपुरी उर्फ रघुपति सहाय



फ़िराक़ गोरखपुरी की ज़िंदगी और उनकी शायरी



जिसको कभी ज़रा सा कभी भी उर्दू शायरी में कोई दिलचस्पी रही हो, ऐसा नहीं हो सकता की उसने कभी फ़िराक़ गोरखपुरी का नाम ना सुना हो, फ़िराक़ गोरखपुरी का असल नाम था, रघुपति सहाय उनकी उर्दू ज़बान में जो पकड़ थी वो बड़े बड़े शायरों को हासिल नहीं थी. रघुपति सहाय की पैदाइश 28 अगस्त 1896 के दिन उत्तरप्रदेश के गोरखपुर में हुआ, इनके वालिद का नाम मुंशी गोरख प्रसादइबरत” था, जोकि गोरखपुर के एक जाने माने शायर थे। जो उर्दू में शेर कहा करते थे उनका समाज में बहुत सम्मान था. फ़िराक़ का बचपन गोरखपुर में ही बिता उनके घर में जो माहौल था, वो बड़ा ही धार्मिक था घर में वेदांतों के चर्चा हुआ करती जहां अक्सर साधू संतों का डेरा लगा रहता। हमेशा वहाँ पुराणों वेदों की बातें होती रहतीं रामायण के श्लोक फिज़ाओं में फिरते रहते थे, रामचरित मानस और गीता का रोजाना घर में पाठ हुआ करता था. जिसका उनके मासूम दिल पर बहुत गहरा असर हुआ वो सनातनी धर्म की नज़र से दुनियाँ को देख रहे थे, और उसी तरह से ज़िंदगी उनकी आकार ले रही थी, वो बचपन से ही पढ़ने लिखने के शौकीन थे उन्होने अपनी पढ़ाई रामकृष्ण की कहानियों से शुरु की उनकी उम्र जब स्कूल जाने की हुई तब उन्होने ने गोरखपुर कमीशन स्कूल में दाखिला लिया, उस वक़्त पढ़ाई जाने वाली भाषाओं जैसे हिन्दी उर्दू अरबी और अंग्रेज़ी में पढ़ाई की शुरुवाती पढ़ाई के गोरखपुर में करने के बाद आगे की पढ़ाई के लिए वो इलाहाबाद आ गए. वहाँ उन्होने मयों कॉलेज में दाखिला लिया.


फ़िराक़ की निजी ज़िंदगी  



फ़िराक़ गोरखपुरी की ज़िंदगी और शायरी


उन दिनों शादियाँ बहुत कम उम्र में हो जाया करतीं थीं, इस वजह से फ़िराक़ की शादी भी जल्दी हो गई उनकी शादी 29 जून 1914 के दिन किशोरी देवी के साथ हुई. उनके ससुर उस इलाक़े के ज़मींदार हुआ करते थे, उनका नाम था विंदेश्वरी प्रसाद. उनका उनकी बीवी से मन नहीं लगा वो एक मजबूरी का रिश्ता था जो उन दोनों ने कुछ सालों तक निभाया, उनकी बीवी और फ़िराक़ की सोच आपस में कभी नहीं मिली जिसकी वजह से फ़िराक़ और उनकी बीवी के बीच वो रिश्ते न बन सके जो अमूमन मियां बीवी में हुआ करते हैं. दोनों साथ तो रहे मगर फिर भी साथ न रह सके, आखिरकार दोनों अलग हो गए उनकी तीन औलादें हुई जिसमें एक लड़का और दो लड़कियां थीं.


फ़िराक़ और दौरे-ए-आज़ादी



फ़िराक़ गोरखपुरी की ज़िंदगी और शायरी



फ़िराक़ ने सन 1917 में कला (Arts) विषय से ग्रेजुएशन किया था, वो पढ़ने में बहुत होनहार थे जिसकी बदौलत उन्होने उस वक़्त पूरे राज्य में चौथा स्थान प्राप्त किया और अपने पूरे इलाक़े और खानदान का नाम रौशन किया, इसकी वजह से वो आई.सी.एस. के लिए चुने गए। उनदिनों पूरे भारत में आज़ादी की लहरें उठ रहीं थीं, और कब तब एक शायर इस लहर से बच पता आखिर एक शायर और किसी बग़ावत का हिस्सा न हो तो फिर वो शायर नहीं हो सकता. खैर वो उनदिनों गांधी जी से बहुत ज़्यादा मुतासीर हुए थे, जिसकी वजह से उन्होने ये अंग्रेजों की नौकरी 1920 में छोड़ दी. और फिर वो गांधी जी के असहयोग आंदोलन में शामिल हो गए, जिसकी वजह से उन्हे अंग्रेज़ी सरकार ने जेल में डाल दिया और वो पूरे ढाई साल तक जेल में रहे। इसके बाद जब वो जेल से बाहर आए तब उन्हे पंडित जवाहर लाल ने अपने सचिव के पद पर नियुक्त कर लिया. फिर कुछ अरसे बाद पंडित जवाहरलाल यूरोप चले गए, इसके बाद भी वो पंडित जवाहरलाल नेहरू और गांधी जी के संपर्क में रहे, नेहरू जी की मृत्यु के बाद जब देश की कमान उनकी बेटी इन्दिरा गांधी ने संभाली तब भी उनका इन्दिरा गांधी से मिलना जुलना हुआ करता था. एक बार उनकी आँखों में उम्र के चलते मोतियाबिंद की शिकायत हुई और डॉक्टरों ने ऑपरेशन की सलाह दी तब उनका इलाज इन्दिरा गांधी ने अपने ख़र्चे से करवाया था.


फ़िराक़ और इलाहाबाद



फ़िराक़ गोरखपुरी की ज़िंदगी और शायरी



तब उन्होने इलाहाबाद युनिवर्सिटी में अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर के तौर पर काम करना शुरू कर दिया। और तकरीबन 40 सालों तक ऐसे ही इलाहाबाद युनिवर्सिटी के क्लास रूम में अंग्रेज़ी की क्लास लेते रहे, युनिवर्सिटी के गलियारों में टहलते रहे फिर 1959 में वो युनिवर्सिटी से रिटायर हुए. और शायरी करते रहे वो बहुत ही गुस्सैल थे बात बात पर भड़क जाया करते थे, अगर किसी की बात पसंदआ गई तो तुरंत उसको इस बात का एहसास करवा देते, और अगर किसी की कोई बात बुरी लगी तो तुरंत उसका भी एहसास करवा देते। वो अपने एहसास को कभी नहीं छुपते थे, वो जो महसूस कर रहे होते थे उस वक़्त वो तुरंत बयान कर देते बनावटी ज़िंदगी और बनावटी शख्सियत उनको पसंद नहीं थी. उनको दूर से देख कर पहचाना जा सकता था, बड़ा सा दबंग चेहरा उसपर दो गोल गोल सी आँखें जो सीधे दिल तक असर करती थीं सर पर टोपी और टोपी के अंदर से झाँकते बेतरतीब बाल। सीधे हाथ की उँगलियों में सुलगती उनकी सिगरेट जो कभी नहीं बुझती थी, ढीला सा पायज़ामा उसके ऊपर शेरवानी जिसके दो चार बटन हमेशा खुले हुए रहते। उनको बातें बढ़ाचढ़ा कर करना पसंद था, वो अपने दर्द ग़म को इतना बढ़ाचढ़ा कर बताते जितना वो होता न था. खुद ही कोई बात सोचते और उसको ही सच समझने लगते और दूसरों को भी अपनी बात मानने पर मजबूर किया करते। कभी खुश होते तो चुट्कुले भी सुनाया करते थे। इसके साथ ही वो हाजिरजवाब भी थे तपाक से बात पर पलट कर अपनी राय रखते.


 फ़िराक़ और उनकी लिखावट का अनोखा अंदाज़ 



फ़िराक़ साहब ने अपनी अक्सर ग़ज़लें उर्दू ज़ुबान में लिखीं, वो उर्दू जिसमें हिन्दी के शब्दों का इस्तेमाल काफी हो हालांकि उनकी पहचान उनकी ग़ज़लों की वजह से है। मगर उन्होने नज़्म और रुबाइयाँ भी बहुत लिखीं उनकी शायरी में अक्सर रात तन्हाई जुदाई का ज़िक्र हुआ करता था. वो नये नये शब्दों का इस्तेमाल किया करते थे, उनकी लिखावट उस जमाने की शायरी से बिलकुल अलग थी. वो ज़माना था आज़ादी के दिनों का मगर फ़िराक़ साहब डूबे रहे अपने इश्क़ अपने दर्द अपनी तन्हाई में. मगर ऐसा नहीं की उन्होने अपना पूरा कलाम इन्ही एहसासों के इर्द गिर्द लिखा, उन्होने देशभक्ति के अशआर भी लिखे उन्होने अपनी पूरी ज़िंदगी में करीबन 650 ग़ज़लें लिखीं.

फ़िराक़ और उनके इनामात 


फ़िराक़ गोरखपुरी की ज़िंदगी और शायरी


फ़िराक़ साहब को उनकी लिखावट के लिए कई सारे इनामों से नवाज़ा गया, उनकी ग़ज़ल की एक किताब गुल–ए-नगमा के लिए उन्हे सन 1960 में साहित्य आकदमी से नवाज़ा गया. फिर साहित्य और शिक्षा में उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने सन 1967 में पद्मभूषण से नवाज़ा, उनको ज्ञान पीठ और सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया, भारत सरकार ने फ़िराक़ के नाम से एक डाक टिकट भी निकाला था.

फ़िराक़ की कुछ मशहूर रचनाएँ


1 गुल--नगमा
2 रूहे-कायनात
3 गजालिस्तान
4 शबिस्तान
5 धरती की करवट
6 चिरागां
7 हज़ार दास्ताँ
8 गुलबाग
9 नकुश
10 परछाइयाँ
11 मशअल 
12 नग्म-ए-साज़
13 शेरिस्तान
14 रूप
15 रम्ज व कायनात
16 शोला-ओ-साज़
17 बज़्म-ए-ज़िंदगी रंग-ए-शायरी
18 जुगनू
19 आधीरात
20 तराना-ए-इश्क़


फ़िराक़ के आख़री दिन  



फ़िराक़ गोरखपुरी के आखिरी कुछ दिन बहुत ही नाउम्मीदी और दर्द में डूबे हुए बीते, उम्र की इस दहलीज़ पर उनको कई बीमारियों ने घेर लिया था। और उनका खुद का जेहन भी बहुत नाज़ुक था, वो अपने दर्द को कुछ ज़्यादा ही समझते थे. खैर इसी कश्मकश के बीच 3 मार्च 1982 के दिन इस अज़ीम शायर ने दुनियाँ से रुखसत होंने का इरादा कर लिया। और अपने चाहने वालों और अपने बीच एक खालीपन छोड़ कर चले गए, उनका ही एक शेर जो उनकी खामोश हुई ज़ुबान पर सही तरह से समझा जा सकता है वो कहते हैं-

अब अक्सर चुप चुप से रहे हैं
यूं ही कभी लब खोले हैं
पहले फ़िराक़ को देखा होता
अब तो बहुत कम बोले हैं


फ़िराक़ गोरखपुरी की कुछ मशहूर ग़ज़लें-



बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं


बहुत पहले से उन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ज़िंदगी हम दूर से पहचान लेते हैं
मिरी नज़रें भी ऐसे क़ातिलों का जान ईमाँ हैं
निगाहें मिलते ही जो जान और ईमान लेते हैं
जिसे कहती है दुनिया कामयाबी वाए नादानी
उसे किन क़ीमतों पर कामयाब इंसान लेते हैं
निगाह-ए-बादा-गूँ यूँ तो तिरी बातों का क्या कहना
तिरी हर बात लेकिन एहतियातन छान लेते हैं
तबीअ' अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तिरी यादों की चादर तान लेते हैं
ख़ुद अपना फ़ैसला भी इश्क़ में काफ़ी नहीं होता
उसे भी कैसे कर गुज़रें जो दिल में ठान लेते हैं
हयात-ए-इश्क़ का इक इक नफ़स जाम-ए-शहादत है
वो जान-ए-नाज़-बरदाराँ कोई आसान लेते हैं
हम-आहंगी में भी इक चाशनी है इख़्तिलाफ़ों की
मिरी बातें ब-उनवान-ए-दिगर वो मान लेते हैं
तिरी मक़बूलियत की वज्ह वाहिद तेरी रमज़िय्यत
कि उस को मानते ही कब हैं जिस को जान लेते हैं
अब इस को कुफ़्र मानें या बुलंदी-ए-नज़र जानें
ख़ुदा-ए-दो-जहाँ को दे के हम इंसान लेते हैं
जिसे सूरत बताते हैं पता देती है सीरत का
इबारत देख कर जिस तरह मा'नी जान लेते हैं
तुझे घाटा होने देंगे कारोबार-ए-उल्फ़त में
हम अपने सर तिरा दोस्त हर एहसान लेते हैं
हमारी हर नज़र तुझ से नई सौगंध खाती है
तो तेरी हर नज़र से हम नया पैमान लेते हैं
रफ़ीक़-ए-ज़िंदगी थी अब अनीस-ए-वक़्त-ए-आख़िर है
तिरा मौत हम ये दूसरा एहसान लेते हैं
ज़माना वारदात-ए-क़ल्ब सुनने को तरसता है
इसी से तो सर आँखों पर मिरा दीवान लेते हैं
'फ़िराक़' अक्सर बदल कर भेस मिलता है कोई काफ़िर
कभी हम जान लेते हैं कभी पहचान लेते हैं


सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं


सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं
दिल की गिनती यगानों में बेगानों में
लेकिन उस जल्वा-गह-ए-नाज़ से उठता भी नहीं
मेहरबानी को मोहब्बत नहीं कहते दोस्त
आह अब मुझ से तिरी रंजिश-ए-बेजा भी नहीं
एक मुद्दत से तिरी याद भी आई हमें
और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं
आज ग़फ़लत भी उन आँखों में है पहले से सिवा
आज ही ख़ातिर-ए-बीमार शकेबा भी नहीं
बात ये है कि सुकून-ए-दिल-ए-वहशी का मक़ाम
कुंज-ए-ज़िंदाँ भी नहीं वुसअ'त-ए-सहरा भी नहीं
अरे सय्याद हमीं गुल हैं हमीं बुलबुल हैं
तू ने कुछ आह सुना भी नहीं देखा भी नहीं
आह ये मजमा-ए-अहबाब ये बज़्म-ए-ख़ामोश
आज महफ़िल में 'फ़िराक़'-ए-सुख़न-आरा भी नहीं
ये भी सच है कि मोहब्बत पे नहीं मैं मजबूर
ये भी सच है कि तिरा हुस्न कुछ ऐसा भी नहीं
यूँ तो हंगामे उठाते नहीं दीवाना-ए-इश्क़
मगर दोस्त कुछ ऐसों का ठिकाना भी नहीं
फ़ितरत-ए-हुस्न तो मा'लूम है तुझ को हमदम
चारा ही क्या है ब-जुज़ सब्र सो होता भी नहीं
मुँह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते कि 'फ़िराक़'
है तिरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं


आई है कुछ पूछ क़यामत कहाँ कहाँ


आई है कुछ पूछ क़यामत कहाँ कहाँ
उफ़ ले गई है मुझ को मोहब्बत कहाँ कहाँ
बेताबी-ओ-सुकूँ की हुईं मंज़िलें तमाम
बहलाएँ तुझ से छुट के तबीअ' कहाँ कहाँ
फ़ुर्क़त हो या विसाल वही इज़्तिराब है
तेरा असर है ग़म-ए-फ़ुर्क़त कहाँ कहाँ
हर जुम्बिश-ए-निगाह में सद-कैफ़ बे-ख़ुदी
भरती फिरेगी हुस्न की निय्यत कहाँ कहाँ
राह-ए-तलब में छोड़ दिया दिल का साथ भी
फिरते लिए हुए ये मुसीबत कहाँ कहाँ
दिल के उफ़क़ तक अब तो हैं परछाइयाँ तिरी
ले जाए अब तो देख ये वहशत कहाँ कहाँ
नर्गिस-ए-सियाह बता दे तिरे निसार
किस किस को है ये होश ये ग़फ़लत कहाँ कहाँ
नैरंग-ए-इश्क़ की है कोई इंतिहा कि ये
ये ग़म कहाँ कहाँ ये मसर्रत कहाँ कहाँ
बेगानगी पर उस की ज़माने से एहतिराज़
दर-पर्दा उस अदा की शिकायत कहाँ कहाँ
फ़र्क़ गया था दौर-ए-हयात-ओ-ममात में
आई है आज याद वो सूरत कहाँ कहाँ
जैसे फ़ना बक़ा में भी कोई कमी सी हो
मुझ को पड़ी है तेरी ज़रूरत कहाँ कहाँ
दुनिया से दल इतनी तबीअ' भरी थी
तेरे लिए उठाई नदामत कहाँ कहाँ
अब इम्तियाज़-ए-इश्क़-ओ-हवस भी नहीं रहा
होती है तेरी चश्म-ए-इनायत कहाँ कहाँ
हर गाम पर तरीक़-ए-मोहब्बत में मौत थी
इस राह में खुले दर-ए-रहमत कहाँ कहाँ
होश-ओ-जुनूँ भी अब तो बस इक बात हैं 'फ़िराक़'
होती है उस नज़र की शरारत कहाँ कहाँ


किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी


किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
ये हुस्न इश्क़ तो धोका है सब मगर फिर भी
हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है
नई नई सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी
कहूँ ये कैसे इधर देख या देख उधर
कि दर्द दर्द है फिर भी नज़र नज़र फिर भी
ख़ुशा इशारा-ए-पैहम ज़हे सुकूत-ए-नज़र
दराज़ हो के फ़साना है मुख़्तसर फिर भी
झपक रही हैं ज़मान मकाँ की भी आँखें
मगर है क़ाफ़िला आमादा-ए-सफ़र फिर भी
शब-ए-फ़िराक़ से आगे है आज मेरी नज़र
कि कट ही जाएगी ये शाम-ए-बे-सहर फिर भी
कहीं यही तो नहीं काशिफ़-ए-हयात-ओ-ममात
ये हुस्न इश्क़ ब-ज़ाहिर हैं बे-ख़बर फिर भी
पलट रहे हैं ग़रीब-उल-वतन पलटना था
वो कूचा रू-कश-ए-जन्नत हो घर है घर फिर भी
लुटा हुआ चमन-ए-इश्क़ है निगाहों को
दिखा गया वही क्या क्या गुल समर फिर भी
ख़राब हो के भी सोचा किए तिरे महजूर
यही कि तेरी नज़र है तिरी नज़र फिर भी
हो बे-नियाज़-ए-असर भी कभी तिरी मिट्टी
वो कीमिया ही सही रह गई कसर फिर भी
लिपट गया तिरा दीवाना गरचे मंज़िल से
उड़ी उड़ी सी है ये ख़ाक-ए-रहगुज़र फिर भी
तिरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है
उतर गया रग-ए-जाँ में ये नेश्तर फिर भी
ग़म-ए-फ़िराक़ के कुश्तों का हश्र क्या होगा
ये शाम-ए-हिज्र तो हो जाएगी सहर फिर भी
फ़ना भी हो के गिराँ-बारी-ए-हयात पूछ
उठाए उठ नहीं सकता ये दर्द-ए-सर फिर भी
सितम के रंग हैं हर इल्तिफ़ात-ए-पिन्हाँ में
करम-नुमा हैं तिरे जौर सर-ब-सर फिर भी
ख़ता-मुआफ़ तिरा अफ़्व भी है मिस्ल-ए-सज़ा
तिरी सज़ा में है इक शान-ए-दर-गुज़र फिर भी
अगरचे बे-ख़ुदी-ए-इश्क़ को ज़माना हुआ
'फ़िराक़' करती रही काम वो नज़र फिर भी


कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम


कुछ इशारे थे जिन्हें दुनिया समझ बैठे थे हम
उस निगाह-ए-आश्ना को क्या समझ बैठे थे हम
रफ़्ता रफ़्ता ग़ैर अपनी ही नज़र में हो गए
वाह-री ग़फ़्लत तुझे अपना समझ बैठे थे हम
होश की तौफ़ीक़ भी कब अहल-ए-दिल को हो सकी
इश्क़ में अपने को दीवाना समझ बैठे थे हम
पर्दा-ए-आज़ुर्दगी में थी वो जान-ए-इल्तिफ़ात
जिस अदा को रंजिश-ए-बेजा समझ बैठे थे हम
क्या कहें उल्फ़त में राज़-ए-बे-हिसी क्यूँकर खुला
हर नज़र को तेरी दर्द-अफ़ज़ा समझ बैठे थे हम
बे-नियाज़ी को तिरी पाया सरासर सोज़ दर्द
तुझ को इक दुनिया से बेगाना समझ बैठे थे हम
इंक़लाब-ए-पय-ब-पय हर गर्दिश हर दौर में
इस ज़मीन आसमाँ को क्या समझ बैठे थे हम
भूल बैठी वो निगाह-ए-नाज़ अहद-ए-दोस्ती
उस को भी अपनी तबीअ' का समझ बैठे थे हम
साफ़ अलग हम को जुनून-ए-आशिक़ी ने कर दिया
ख़ुद को तेरे दर्द का पर्दा समझ बैठे थे हम
कान बजते हैं मोहब्बत के सुकूत-ए-नाज़ को
दास्ताँ का ख़त्म हो जाना समझ बैठे थे हम
बातों बातों में पयाम-ए-मर्ग भी ही गया
उन निगाहों को हयात-अफ़्ज़ा समझ बैठे थे हम
अब नहीं ताब-ए-सिपास-ए-हुस्न इस दिल को जिसे
बे-क़रार-ए-शिकव-ए-बेजा समझ बैठे थे हम
एक दुनिया दर्द की तस्वीर निकली इश्क़ को
कोह-कन और क़ैस का क़िस्सा समझ बैठे थे हम
रफ़्ता रफ़्ता इश्क़ मानूस-ए-जहाँ होता चला
ख़ुद को तेरे हिज्र में तन्हा समझ बैठे थे हम
हुस्न को इक हुस्न ही समझे नहीं और 'फ़िराक़'
मेहरबाँ ना-मेहरबाँ क्या क्या समझ बैठे थे हम


'फ़िराक़' इक नई सूरत निकल तो सकती है


'फ़िराक़' इक नई सूरत निकल तो सकती है
ब-क़ौल उस आँख के दुनिया बदल तो सकती है
तिरे ख़याल को कुछ चुप सी लग गई वर्ना
कहानियों से शब-ए-ग़म बहल तो सकती है
उरूस-ए-दहर चले खा के ठोकरें लेकिन
क़दम क़दम पे जवानी उबल तो सकती है
पलट पड़े कहीं उस निगाह का जादू
कि डूब कर ये छुरी कुछ उछल तो सकती है
बुझे हुए नहीं इतने बुझे हुए दिल भी
फ़सुर्दगी में तबीअ' मचल तो सकती है
अगर तू चाहे तो ग़म वाले शादमाँ हो जाएँ
निगाह-ए-यार ये हसरत निकल तो सकती है
अब इतनी बंद नहीं ग़म-कदों की भी राहें
हवा-ए-कूच-ए-महबूब चल तो सकती है
कड़े हैं कोस बहुत मंज़िल-ए-मोहब्बत के
मिले छाँव मगर धूप ढल तो सकती है
हयात लौ तह-ए-दामान-ए-मर्ग दे उट्ठी
हवा की राह में ये शम्अ जल तो सकती है
कुछ और मस्लहत-ए-जज़्ब-ए-इश्क़ है वर्ना
किसी से छुट के तबीअ' सँभल तो सकती है
अज़ल से सोई है तक़दीर-ए-इश्क़ मौत की नींद
अगर जगाइए करवट बदल तो सकती है
ग़म-ए-ज़माना-ओ-सोज़-ए-निहाँ की आँच तो दे
अगर टूटे ये ज़ंजीर गल तो सकती है
शरीक-ए-शर्म-ओ-हया कुछ है बद-गुमानी-ए-हुस्न
नज़र उठा ये झिजक सी निकल तो सकती है
कभी वो मिल सकेगी मैं ये नहीं कहता
वो आँख आँख में पड़ कर बदल तो सकती है
बदलता जाए ग़म-ए-रोज़गार का मरकज़
ये चाल गर्दिश-ए-अय्याम चल तो सकती है
वो बे-नियाज़ सही दिल मता-ए-हेच सही
मगर किसी की जवानी मचल तो सकती है
तिरी निगाह सहारा दे तो बात है और
कि गिरते गिरते भी दुनिया सँभल तो सकती है
ये ज़ोर-ओ-शोर सलामत तिरी जवानी भी
ब-क़ौल इश्क़ के साँचे में ढल तो सकती है
सुना है बर्फ़ के टुकड़े हैं दिल हसीनों के
कुछ आँच पा के ये चाँदी पिघल तो सकती है
हँसी हँसी में लहू थूकते हैं दिल वाले
ये सर-ज़मीन मगर ला' उगल तो सकती है
जो तू ने तर्क-ए-मोहब्बत को अहल-ए-दिल से कहा
हज़ार नर्म हो ये बात खल तो सकती है
अरे वो मौत हो या ज़िंदगी मोहब्बत पर
कुछ सही कफ़-ए-अफ़सोस मल तो सकती है
हैं जिस के बल पे खड़े सरकशों को वो धरती
अगर कुचल नहीं सकती निगल तो सकती है
हुई है गर्म लहु पी के इश्क़ की तलवार
यूँ ही जिलाए जा ये शाख़ फल तो सकती है
गुज़र रही है दबे पाँव इश्क़ की देवी
सुबुक-रवी से जहाँ को मसल तो सकती है
हयात से निगह-ए-वापसीं है कुछ मानूस
मिरे ख़याल से आँखों में पल तो सकती है
भूलना ये है ताख़ीर हुस्न की ताख़ीर
'फ़िराक़' आई हुई मौत टल तो सकती है



अब अक्सर चुप चुप से रहें हैं यूँही कभू लब खोलें हैं


अब अक्सर चुप चुप से रहें हैं यूँही कभू लब खोलें हैं
पहले 'फ़िराक़' को देखा होता अब तो बहुत कम बोलें हैं
दिन में हम को देखने वालो अपने अपने हैं औक़ात
जाओ तुम इन ख़ुश्क आँखों पर हम रातों को रो लें हैं
फ़ितरत मेरी इश्क़-ओ-मोहब्बत क़िस्मत मेरी तंहाई
कहने की नौबत ही आई हम भी किसू के हो लें हैं
ख़ुनुक सियह महके हुए साए फैल जाएँ हैं जल-थल पर
किन जतनों से मेरी ग़ज़लें रात का जूड़ा खोलें हैं
बाग़ में वो ख़्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर
डाली डाली नौरस पत्ते सहज सहज जब डोलें हैं
उफ़ वो लबों पर मौज-ए-तबस्सुम जैसे करवटें लें कौंदे
हाए वो आलम-ए-जुम्बिश-ए-मिज़्गाँ जब फ़ित्ने पर तौलें हैं
नक़्श-ओ-निगार-ए-ग़ज़ल में जो तुम ये शादाबी पाओ हो
हम अश्कों में काएनात के नोक-ए-क़लम को डुबो लें हैं
इन रातों को हरीम-ए-नाज़ का इक आलम हुए है नदीम
ख़ल्वत में वो नर्म उँगलियाँ बंद-ए-क़बा जब खोलें हैं
ग़म का फ़साना सुनने वालो आख़िर-ए-शब आराम करो
कल ये कहानी फिर छेड़ेंगे हम भी ज़रा अब सो लें हैं
हम लोग अब तो अजनबी से हैं कुछ तो बताओ हाल-ए-'फ़िराक़'
अब तो तुम्हीं को प्यार करें हैं अब तो तुम्हीं से बोलें हैं



वो चुप-चाप आँसू बहाने की रातें


वो चुप-चाप आँसू बहाने की रातें
वो इक शख़्स के याद आने की रातें
शब-ए-मह की वो ठंडी आँचें वो शबनम
तिरे हुस्न के रस्मसाने की रातें
जवानी की दोशीज़गी का तबस्सुम
गुल-ए-ज़ार के वो खिलाने की रातें
फुवारें सी नग़्मों की पड़ती हों जैसे
कुछ उस लब के सुनने-सुनाने की रातें
मुझे याद है तेरी हर सुब्ह-ए-रुख़्सत
मुझे याद हैं तेरे आने की रातें
पुर-असरार सी मेरी अर्ज़-ए-तमन्ना
वो कुछ ज़ेर-ए-लब मुस्कुराने की रातें
सर-ए-शाम से रतजगा के वो सामाँ
वो पिछले पहर नींद आने की रातें
सर-ए-शाम से ता-सहर क़ुर्ब-ए-जानाँ
जाने वो थीं किस ज़माने की रातें
सर-ए-मय-कदा तिश्नगी की वो क़स्में
वो साक़ी से बातें बनाने की रातें
हम-आग़ोशियाँ शाहिद-ए-मेहरबाँ की
ज़माने के ग़म भूल जाने की रातें
'फ़िराक़' अपनी क़िस्मत में शायद नहीं थे
ठिकाने के दिन या ठिकाने की रातें


समझता हूँ कि तू मुझ से जुदा है


समझता हूँ कि तू मुझ से जुदा है
शब-ए-फ़ुर्क़त मुझे क्या हो गया है
तिरा ग़म क्या है बस ये जानता हूँ
कि मेरी ज़िंदगी मुझ से ख़फ़ा है
कभी ख़ुश कर गई मुझ को तिरी याद
कभी आँखों में आँसू गया है
हिजाबों को समझ बैठा मैं जल्वा
निगाहों को बड़ा धोका हुआ है
बहुत दूर अब है दिल से याद तेरी
मोहब्बत का ज़माना रहा है
जी ख़ुश कर सका तेरा करम भी
मोहब्बत को बड़ा धोका रहा है
कभी तड़पा गया है दिल तिरा ग़म
कभी दिल को सहारा दे गया है
शिकायत तेरी दिल से करते करते
अचानक प्यार तुझ पर गया है
जिसे चौंका के तू ने फेर ली आँख
वो तेरा दर्द अब तक जागता है
जहाँ है मौजज़न रंगीनी-ए-हुस्न
वहीं दिल का कँवल लहरा रहा है
गुलाबी होती जाती हैं फ़ज़ाएँ
कोई इस रंग से शरमा रहा है
मोहब्बत तुझ से थी क़ब्ल-अज़-मोहब्बत
कुछ ऐसा याद मुझ को रहा है
जुदा आग़ाज़ से अंजाम से दूर
मोहब्बत इक मुसलसल माजरा है
ख़ुदा-हाफ़िज़ मगर अब ज़िंदगी में
फ़क़त अपना सहारा रह गया है
मोहब्बत में 'फ़िराक़' इतना ग़म कर
ज़माने में यही होता रहा है


बस्तियाँ ढूँढ रही हैं उन्हें वीरानों में


बस्तियाँ ढूँढ रही हैं उन्हें वीरानों में
वहशतें बढ़ गईं हद से तिरे दीवानों में
निगह-ए-नाज़ दीवानों फ़र्ज़ानों में
जानकार एक वही है मगर अन-जानों में
बज़्म-ए-मय बे-ख़ुद-ओ-बे-ताब क्यूँ हो साक़ी
मौज-ए-बादा है कि दर्द उठता है पैमानों में
मैं तो मैं चौंक उठी है ये फ़ज़ा-ए-ख़ामोश
ये सदा कब की सुनी आती है फिर कानों में
सैर कर उजड़े दिलों की जो तबीअ' है उदास
जी बहल जाते हैं अक्सर इन्हीं वीरानों में
वुसअ'तें भी हैं निहाँ तंगी-ए-दिल में ग़ाफ़िल
जी बहल जाते हैं अक्सर इन्हीं मैदानों में
जान ईमान-ए-जुनूँ सिलसिला जुम्बान-ए-जुनूँ
कुछ कशिश-हा-ए-निहाँ जज़्ब हैं वीरानों में
ख़ंदा-ए-सुब्ह-ए-अज़ल तीरगी-ए-शाम-ए-अबद
दोनों आलम हैं छलकते हुए पैमानों में
देख जब आलम-ए-हू को तो नया आलम है
बस्तियाँ भी नज़र आने लगीं वीरानों में
जिस जगह बैठ गए आग लगा कर उट्ठे
गर्मियाँ हैं कुछ अभी सोख़्ता-सामानों में
वहशतें भी नज़र आती हैं सर-ए-पर्दा-ए-नाज़
दामनों में है ये आलम गरेबानों में
एक रंगीनी-ए-ज़ाहिर है गुलिस्ताँ में अगर
एक शादाबी-ए-पिन्हाँ है बयाबानों में
जौहर-ए-ग़ुंचा-ओ-गुल में है इक अंदाज़-ए-जुनूँ
कुछ बयाबाँ नज़र आए हैं गरेबानों में
अब वो रंग-ए-चमन-ओ-ख़ंदा-ए-गुल भी रहे
अब वो आसार-ए-जुनूँ भी नहीं दीवानों में
अब वो साक़ी की भी आँखें रहीं रिंदों में
अब वो साग़र भी छलकते नहीं मय-ख़ानों में
अब वो इक सोज़-ए-निहानी भी दिलों में रहा
अब वो जल्वे भी नहीं इश्क़ के काशानों में
अब वो रात जब उम्मीदें भी कुछ थीं तुझ से
अब वो बात ग़म-ए-हिज्र के अफ़्सानों में
अब तिरा काम है बस अहल-ए-वफ़ा का पाना
अब तिरा नाम है बस इश्क़ के ग़म-ख़ानों में
ता-ब-कै वादा-ए-मौहूम की तफ़्सील 'फ़िराक़'
शब-ए-फ़ुर्क़त कहीं कटती है इन अफ़्सानों में


कुछ कुछ इश्क़ की तासीर का इक़रार तो है


कुछ कुछ इश्क़ की तासीर का इक़रार तो है
उस का इल्ज़ाम-ए-तग़ाफ़ुल पे कुछ इंकार तो है
हर फ़रेब-ए-ग़म-ए-दुनिया से ख़बर-दार तो है
तेरा दीवाना किसी काम में हुश्यार तो है
देख लेते हैं सभी कुछ तिरे मुश्ताक़-ए-जमाल
ख़ैर दीदार हो हसरत-ए-दीदार तो है
माअ'रके सर हों उसी बर्क़-ए-नज़र से हुस्न
ये चमकती हुई चलती हुइ तलवार तो है
सर पटकने को पटकता है मगर रुक रुक कर
तेरे वहशी को ख़याल-ए-दर-ओ-दीवार तो है
इश्क़ का शिकवा-ए-बेजा भी बे-कार गया
सही जौर मगर जौर का इक़रार तो है
तुझ से हिम्मत तो पड़ी इश्क़ को कुछ कहने की
ख़ैर शिकवा सही शुक्र का इज़हार तो है
इस में भी राबता-ए-ख़ास की मिलती है झलक
ख़ैर इक़रार-ए-मोहब्बत हो इंकार तो है
क्यूँ झपक जाती है रह रह के तिरी बर्क़-ए-निगाह
ये झिजक किस लिए इक कुश्ता-ए-दीदार तो है
कई उन्वान हैं मम्नून-ए-करम करने के
इश्क़ में कुछ सही ज़िंदगी बे-कार तो है
सहर-ओ-शाम सर-ए-अंजुमन-ए-नाज़ हो
जल्वा-ए-हुस्न तो है इश्क़-ए-सियहकार तो है
चौंक उठते हैं 'फ़िराक़' आते ही उस शोख़ का नाम
कुछ सरासीमगी-ए-इश्क़ का इक़रार तो है









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