आपने भी सुना ही होगा की आदमी ख़त्म होता है, मगर उसके विचार हमेशा के लिए रह जाते हैं। और ये कहना भी सही है ख़त्म वही हो सकता है जो होता है, जिसे देखा जा सकता है, जिसको महसूस किया जाता है. उसको ख़त्म भी नहीं किया जा सकता कुछ ऐसे ही होते हैं शायर, जो भले ही लिखते हैं उस वक़्त में जब वो ज़िंदगी की जदोजहद में लगे रहते हैं और वो लिखते हैं जो वो उस वक़्त महसूस कर रहे होते हैं, या जो वो उस वक़्त देख रहे होते हैं। इंसान तो फिर इंसान हैं, वो जिस वक़्त में हों उनके एहसास उसके दर्द उनकी खुशी में कोई बदलाव नहीं आता तो शायर किसी वक़्त किसी ज़माने के मोहताज नहीं होते। उनकी शायरी उनकी नज़्मे जब पढ़ी जाएँ ऐसा लगता है की, जो पढ़ रहा है शायर ने उसी के लिए लिखा हो वैसे ही एक शायर हुए फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ उनकी शायरी को वक़्त की जज़ीरों में नहीं बांधा जा सकता. वैसी ही तेज़ वैसे ही दिल पर असर करने वाली वैसी है बगावती तेवर लिए आज भी वो खड़ी नज़र आतीं हैं.
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
![]() |
Faiz Ahmad Faiz |
13 फरवरी 1911 के दिन सियालकोट आज के पाकिस्तान तब के अविभाजित भारत मे फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का जन्म हुआ, वो बचपन से ही शायरी पसंद किया करते थे। उनके पिता तब बैरिस्टर थे और उनका परिवार मुस्लिम परम्पराओं क सख्ती से पालन करने वाला था। शुरु में उन्होने घर में ही हिन्दी उर्दू अरबी फारसी की पढ़ाई की, फिर बाद में उन्होने ने स्कॉटिश मिशन स्कूल लाहौर में दाखिला लिया, और 1933 में इंग्लिश से एम.ए और 1934 में उर्दू से एम.ए किया. वो मार्क्सवादी विचारधारा से बहुत ज़्यादा प्रभावित थे, वो 1936 में प्रगतिवादी लेखक संघ के साथ जुड़ गए 1938 से 1946 तक उर्दू साहित्यिक मासिक "अदब-ए-लतीफ़ " का संपादन किया।
फ़ैज़ एक लोकतांत्रित आवाज़
![]() |
Faiz Ahmad Faiz |
सन 1950 का वो दौर था, पाकिस्तान गरीबी बेरोजगारी भूखमरी और कई सामाजिक बुराइयों से जूझ रहा था, उसी वक़्त अपनी सत्ता विरोधी छबि की वजह से फ़ैज़ पाकिस्तानी हुकूमत की नज़रों की किरकिरी बन गए थे, वहाँ ये समझा जा रहा था की अब किसी भी वक़्त फ़ैज़ को सजाये मौत का फरमान सुनाया जा सकता है। मगर विद्रोह कभी भी एक अकेले के लिए नहीं किया जाता वो होता है समाज के लिए और पाकिस्तान की जनता ये जानती थी की, फ़ैज़ उस जनता की ही आवाज़ हैं जो उस वक़्त बहुत सारी मुसीबतों में घरी हुई थी। भले ही सत्ता उनके खिलाफ षड्यंत्र रचने में लगी हुई थी, मगर वो मज़लूम जनता उनके साथ थी और ये बात फ़ैज़ भी अच्छी तरह से जानते थे। उसी वक़्त उन्होने लिखी ये जहर में बुझी हुई नज़्म –
निसार मैं तेरी गलियों के ए वतन, कि जहां
चली है रस्म कि कोई न सर उठा के चले
जो कोई चाहने वाला तवाफ़ को निकले
नज़र चुरा के चले, जिस्म-ओ-जां बचा के चले
फ़ैज़ की ज़िंदगी एक बागी की ज़िंदगी रही या तो उन्होने कोई ग़ज़ल या नज़्म लिखी जिसकी वजह से वो जेल गए या जब वो जेल में रहे तब उन्होने लिखी। ऐसा ही एक किस्सा है जब वो सन 1954 में 29 जनवरी के दिन माँटगोमरी के जेल में बंद थे तब उन्होने लिखी थी ये मशहूर ग़ज़ल –
गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
क़फ़स उदास है, यारो सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले
कभी तो सुब्ह तेरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्कबार चले
बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आयेंगे, ग़मगुसार चले
जो हम पे गुज़री सो गुज़री है शब-ए-हिज़्रां
हमारे अश्क़ तेरी आक़बत संवार चले
हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूं की तलब
गिरह में लेके गरेबां का तार-तार चले
मुक़ाम ‘फ़ैज़’ कोई राह में जंचा ही नहीं
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले
सत्ता जब अपनी एहंकार की हदों को पार कर एक ऐसे रास्ते में चल पड़ती है जहां से राजनीति ख़त्म हो जाती है, और कूटनीति की बदनाम पगडंडियों पर अपने कदम बढ़ाने लगती है। जिससे की वहाँ की जनता की सेवा करने की बजाए वो जनता का शोषण करने लगती है, तब कोई न कोई एक ऐसा होता है जो उसके रास्ते में आकार खड़ा हो जाता है। और वो अक्सर एक कवि या कोई शायर होता है क्योंकि, वो तमाम माध्यम सत्ता ख़त्म कर चुकी होती है जिससे की जनता तक कोई भी सच की रौशनी पहुंचे. धर्म, जाती, रंग, और लिंग का सहारा लेकर सत्ता समाज में एक जहर घोल देती है. ऐसा ही वक़्त आया था, एक बार जब भारत का विभाजन हुआ और एक नया देश बना पाकिस्तान, पाकिस्तान बनाने की वजह चाहे जो भी हो हुआ ये था की, ज़मीन पर लकीर खींच कर एक देश के दो टुकड़े कर दिये गए, और ये लकीर सिर्फ उस ज़मीन के टुकड़े पर नहीं हुआ। वो लकीरें इधर भारत में भी लोगों के दिलों में नज़र आतीं हैं और पाकिस्तान में भी लोगों के दिलों पर साफ साफ नज़र आतीं हैं. इस बात से तड़प कर फ़ैज़ ने लिखी थी ये नज़्म –
ये दाग़ दाग़-उजाला, ये शब-गज़ीदा सहर
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं जिसकी आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आख़िरी मंज़िल
कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल
कहीं तो जाके रुकेगा सफ़ीना-ए-ग़मे-दिल
जब अटल बिहारी वाजपेयी मिले फ़ैज़ से
![]() |
Faiz Ahmad Faiz & Atal Bihari Bajpai |
एक ऐसा दौर आया भारत में जब पहली बार बगैर काँग्रेस के किसी पार्टी ने सरकार बनी ये बात है सन 1977 की, उस वक़्त उस सरकार में विदेश मंत्रालय का जिम्मा स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के पास था। और वो उस दरमायान पाकिस्तान गए हुए थे, किसी सरकारी कार्यकर्म में शामिल होने
और होता ये है की, ऐसे किसी कार्यकर्म में जब किसी देश का कोई प्रतिनिधि जाता है तो उसकी दिनचर्या पहले से ही तय होता है, की वो कहाँ जायेंगे किस्से मिलेंगे। अटल बिहारी जी को पता चला की की फ़ैज़ भी उस वक़्त पाकिस्तान में हैं तो उन्होने पहले से तय उनके सब कार्यकर्म को रद्द किया फ़ैज़ से मिलने के लिए उनके घर चले गए, वहाँ लोग बिलकुल सोच नहीं पा रहे थे की दोनों की सोच बिलकुल जुदा है, मगर वो एक दूसरे से मिल रहे थे वो मुलाक़ात एक शायर और एक कवि की थी. कौन नहीं जनता की अटल बिहारी जी भी हिन्दी के प्रख्यात कवि थे, खैर जब वो फ़ैज़ से मिले तो उन्होने फ़ैज़ से कहा मैं आपसे मिलना चाहता था. और आपकी आवाज़ में आपकी ये ग़ज़ल सुनना चाहता था, और उनकी ये फरमाइश फ़ैज़ ने सर आँखों पर राखी और उन्होने सुनाई अपनी ये ग़ज़ल –
गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले
मकाम ‘फैज़’ कोई राह में जंचा ही नहीं,
जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले.
दोनों ने काफी देर तक एक साथ समय बिताया अटल जी ने फ़ैज़ साहब को भारत आने का नेवता दिया। और वो वहाँ से चले गए फिर कुछ सालों बाद जब फ़ैज़ भारत आए तो सन 1981 में तो फ़ैज़ साहब ने दिल्ली में अटल जी से मुलाक़ात की.
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ का जीवन
सन 1941 में उनकी पहली कविताओं की किताब छपी नक़्श –ए-फरियादी नाम से जो काफी मशहूर हुई, उसी साल उन्होने एक अंग्रेज़ महिला से शादी कर ली उनका नाम एलिस जॉर्ज था और शादी के बाद वो दिल्ली में आ बसे. और वो ब्रिटीश सेना में भर्ती हुए और वो कर्नल के पद तक पदोन्नत हुए, 1947 मे हुए भारत पाकिस्तान विभाजन के बाद उन्होने अपने पद से इस्तीफा दे दिया। और पाकिस्तान चले गए वहाँ लियाकत अली खान के तख़्ता पलट की साजिश रचने के लिए उन्हे 1951 से 1955 तक जेल में रहना पड़ा, 1963 में वो यूरोप, अल्जीरिया के साथ मध्य पूर्व में अपना समय बिताया 1964 में वो फिर पाकिस्तान वापस लौट आए, वो अपनी नज़मों और ग़ज़लों के लिए हमेशा सरकारों और हुक्मरानों की नज़र की किरकिरी रहे, उन्हे कभी भी पाकिस्तान में पाकिस्तानी नहीं समझा गया यहाँ तक की उनकी ग़ज़लों के कारण उन्हे कई लोग मुस्लिम भी नहीं समझते थे. उनकी एक नज़्म है जो आज कल बहुत मशहूर हुई है भारत में कुछ लोग उसे गलत तो कुछ उसे सही समझते हैं.
एक बार का किस्सा है की, पाकिस्तान में तब कर्नल ज़िआ-उल-हक़ की हुकूमत थी। और उन्होने महिलाओं के साड़ी पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया था उनके शासन से त्रस्त होकर वहाँ की 50000 जनता ने उनके खिलाफ मोर्चा निकाला था. जिसके लिए उन्होने लाहौर के स्टेडियम को चुना था, उस दरमायान पाकिस्तान की एक प्रख्यात ग़ज़ल गायिका इकबाल बानो उस स्टेडियम में साड़ी पहन कर आ गईं, और उन्होने जो साड़ी पहनी हुई थी वो काले रंग की थी और काला रंग विरोध का प्रतीक होता है. फिर उन्होने वहाँ मौजूद जनता के सामने फैज अहमद फैज की ये नज़्म गई “हम देखेंगे लाज़िम है की हम देखेंगे” सूनकर वहाँ लोग इंकलाब ज़िन्दाबाद के नारे लगाने लगे. तब से उनकी ये नज़्म अक्सर विरोध के स्वर के रूप में इस्तेमाल की जाती है. वो पूरी की पूरी नज़्म इस तरह है :
हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लोह-ए-अज़ल में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महकूमों के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हकम के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो ग़ायब भी है हाज़िर भी
जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उट्ठेगा अन-अल-हक़ का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज़ करेगी खुल्क-ए-ख़ुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ जीतने पाकिस्तान में पसंद किए जाते हैं उतने ही भारत और तमाम हिन्दी उर्दू बोलने वालों के बीच भी काफी मशहूर हैं जहां भी विद्रोह को किसी विचार की ज़रूरत होती है सबसे पहले जेहन में आता है फ़ैज़ का कोई न कोई कलाम...