मिर्ज़ा ग़ालिब
हैं और भी दुनियाँ में सुख़नवर बहुत अच्छे
कहते हैं की “ग़ालिब” का है अंदाज़-ए-बयां और
"मिर्ज़ा ग़ालिब"
मिर्ज़ा असदुल्लाह बैग ख़ान “मिर्ज़ा ग़ालिब” की पैदाइश 27 दिसम्बर 1797 में आगरा काला महल में हुई, इनके वालिद का नाम मिर्ज़ा अब्दुल्लाह बैग ख़ान था. और इनकी वालिदा का नाम इज्ज़त-उत-निसा बेग़म था. इनके ख़ानदान का तालूक़ ऐबक तुर्क से था और इनका ख़ानदानी पेशा फ़ौजियों का था, उनके दादा मिर्ज़ा क़ोबान बेग खान समरकन्द से हिंदुस्तान आए थे, जब दिल्ली की तख़्त पर अहमद शाह क़ाबिज़ था.उनके वालिद ने कश्मीर की रहने वाली उनकी वालिदा से निक़ाह किया और अपने ससुराल में रहने लगे, पहले उन्होने लखनऊ के नवाब के यहाँ काम किया फिर कुछ अरसा बाद वो हैदराबाद के निज़ाम के यहाँ काम करने चले गए. सन 1803 में अलवर में एक जंग के दौरान वो शहीद हो गए उस वक़्त ग़ालिब की उम्र 6 साल की थी. फिर उनकी परवरिश का ज़िम्मा उनके चाचा मिर्जा नसरुल्ला बैग खान पर आ गया कुछ दिनो बाद वो भी अल्लाह को प्यारे हो गए।
ग़ालिब की माँ ने ही उन्हे घर पर तालिम दी वो काफी पढ़ी लिखीं थीं, ग़ालिब का गुज़रा उनके वालिद और चाचा जो ब्रिटिश इंडिया कंपनी में काम किया करते थे के मिलने वाले पेंशन पर होता रहा. वो कुछ दिनो लाहौर फिर जयपुर में रहे फिर दिल्ली में रहने लगे. ग़ालिब जब 13 साल के थे तब उनकी शादी नवाब इलाही बक्श की बेटी उमराव बेगम से कर दि गयी. और वो फिर आगरा में बस गए,आगरा में उन्होने फारसी की तालिम ‘मौलवी मोहम्मद मोवज्जम’ से ली. ग़ालिब की की पढ़ाई लिखाई में सलाहियता बहुत अच्छी थी वो न सिर्फ फ़ारसी पढ़ते लिखते थे, बल्कि उस नन्ही सी उम्र में वो फ़ारसी के उस वक़्त के बहुत ही मशहूर शायर जहुरी की ग़ज़लों को पढ़ा करते थे, न सिर्फ़ उन्होने फ़ारसी में पढ़ना शुरू किया वो फ़ारसी में ग़ज़लें भी लिखने लगे.
ग़ालिब जिस इलाक़े में रहते थे वहाँ उस वक़्त के बड़े मशहूर फ़ारसी के जानकार रहते थे जिसमें मुल्ला वली मुहम्मद, उनके बेटे शम्सुल जुहा, मोहम्मद बदरुद्दिजा, आज़म अली और मौहम्मद कामिल वगैरा थे। और वो जगह जहां ग़ालिब का मकान था वहाँ उस वक़्त गुलाबख़ाना भी मौजूद था जहां लोग दूर दूर से फ़ारसी की तालिम लेने और देने आया करते थे, इसका असर भी काफी पड़ा ग़ालिब की शख्सियत पर . ग़ालिब 11 साल की उम्र से ही शायरी करने लगे थे 25 की उम्र तक उनका नाम उस वक़्त के बड़े शायरों में शुमार हो गया था.
ग़ालिब की निजी ज़िंदगी बहुत ज़्यादा खुशहाल नहीं थी, उनके छोटे भाई मिर्ज़ा युसुफ़ ख़ान को दिमाग़ी बीमारी थी जिससे वो बहुत परेशान रहा करते थे. और उनके बच्चे पैदा होने से पहले ही मर जाते थे ये सिलसिला 7 बार दोहराया ज़िंदगी ने उनके साथ. उनकी कोई औलाद नहीं थी, दूसरी तरफ उन्हे बचपन से ही जुए की आदत लग गई थी और धीरे धीरे उन्होने शराब भी पीना शुरू कर दिया कहा जाता है. की जब उनकी पेंशन उन्हे मिलती तो वो मेरठ छावनी से जाकर वो शराब लेकर आते जो अंग्रेज़ अफ़सर पिया करते थे उस वक़्त.रोजाना शाम को उनके घर जुए और शराब की महफ़िलें सजा करतीं थी। ऐसा भी कहा जाता है की एक बार ग़ालिब को जुआ खेलते पकड़ा गया था और उन्हे उसकी सज़ा भी दी गयी थी. जब उन्हे पकड़ा गया तो अफसर ने उनसे पूछा की तुम कौन हो ? तुम्हारा नाम क्या है ? उन्होने कहा मेरा नाम ग़ालिब है, अंग्रेज़ अफसर समझ न सका तो उसने पूछा की तुम हिन्दू हो की मुसलमान ? तब उन्होने जो जवाब दिया वो सून कर अंग्रेज़ अफसर को समझ नहीं आया की वो क्या जवाब दे, उन्होने कहा मैं आधा हिन्दू हूँ और आधा मुसलमान तब उसने पूछा वो कैसे ? तो उन्होने कहा मैं शराब पीता हूँ सूअर नहीं खाता.
1850 में जब दिल्ली की तख़्त पर बहादुर शाह जफर तब तक ग़ालिब की शोहरत बहुत बढ़ गई थी, अपने वक़्त के शायरों में उनका अलग मक़ाम हो चुका था, बहादुर शाह के दरबार में उनको खास जगह नसीब हो गई थी वो अब बादशाह के लिए शेर कहते थे, इत्तिफाक़ से बहदुर शाह को भी शायरी का बड़ा शौक था। बहादुर शाह ग़ालिब की शायरी के दीवाने हो गए थे . वो भी उनसे शायरी सीखने लगे. एक किस्सा है जब ग़ालिब से पहले बहादुर शाह के दरबार में शेख़ मूहोम्मद इब्राहिम “ज़ौक़” का बड़ा रसूख़ था. वो जब ग़ालिब के मूहोल्ले से गुज़रते तो डोली उठाए कहारों से कहते यहाँ से बहुत तेज़ी से निकाला करो, क्योंकि वो ग़ालिब का सामना नहीं चाहते थे, मगर एक बार जब वो ऐसे गुज़र रहे थे अचानक कहीं से ग़ालिब अपने दोस्तों के साथ आ गए और उन्होने देखा की ज़ौक़ का डोला जा रहा है तो, उन्होने उन्हे चिढ़ाते हुए ये शेर पढ़ा था “हुआ है शह का मुसाहिब और फिरे है इतराता” ये सून कर ज़ौक़ जैसे आग बगुला हो गए और उन्होने इसकी शिकायत बहादुर शाह से कर दी, शाह ने कहा ठीक है ग़ालिब को दरबार में पेश किया जाए, ग़ालिब आए तब उनसे पूछा गया की उन्होने ऐसा क्यों किया आखिर, उसपर ग़ालिब ने तुरंत तपाक से जवाब दिया कहा जनाब मैंने किसी को चिढ़ाने के लिए ऐसा नहीं किया, वो तो मैं एक शेर का मिसरा दोहरा रहा था, दरबारियों में से किसी ने कहा अच्छा ऐसा है तो शेर मुकम्मल कीजिये। सबको ऐसा लगा की वो ऐसा नहीं कर सकेंगे, मगर उन्होने कुछ ही लम्हों के के बाद कहा.
हुआ है शह का मुसाहिब और फ़िरे है इतराता।
वरना ग़ालिब की शहर में आबरू क्या है ?
पूरा दरबार वाह वाह की आवाज़ों से गूंज उठा, इसपर बहादुर शाह ने कहा की क्या आप इस शेर की पूरी ग़ज़ल सुना सकते हैं । ग़ालिब ने कहा जी ज़रूर इरशाद हो॥
हर एक बात पे कहते हो तुम की तू क्या है ?
तुम्ही कहो की ये अंदाज़–ए-गुफ़्तगू क्या है ?
रगों में दौड़ते फ़िरने के हम नहीं क़ायल ।
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है ?
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन ।
हमारी जेब को अब हाजते रफू क्या है ?
जला है जिस्म जहां दिल भी जल गया होगा ।
कुरेदते हो जो अब राख़ जुस्तजू क्या है ?
रही ना ताक़त-ए-गूफ़्तार और अगर हो भी ।
तो किस उम्मीद पे कहिए की आरज़ू क्या है ?
हुआ है शह का मुसाहिब और फ़िरे है इतराता।
वरना ग़ालिब की शहर में आबरू क्या है ?
पूरा दरबार जैसे ग़ालिब की ग़ज़ल से महक उठा सब ने उठ कर सुभान अल्लाह सुभान अल्लाह के नारे लगाए। और ग़ालिब को उस दिन से दरबार में नौकरी मिल गई.

ग़ालिब की ज़िंदगी वो दरिया थी की जिसमें हर वक़्त एक तूफ़ान का दौर था, अब ज़िंदगी कुछ आसान हुई उनपर तो 1857 का गदर आ गया। हिंदुस्तानी फ़ौजियों ने बग़ावत कर दी अंग्रेजों के खिलाफ़, और उस बग़ावत में बहादुर शाह को सामने रख कर अब आगे की लड़ाई लड़नी थी. अंग्रेजों के खिलाफ़ खैर खूब कत्ल-ओ-ग़ारत मचाई अंग्रेजों ने दिल्ली की गलियों को लाल कर दिया गया खून से और वो बग़ावत कुचल दिया गया. मगर इसका नतीजा ये हुआ की बहादुर शाह जफर को 84 साल में अंग्रेजों ने क़ैद कर लिया, और रंगून भेज दिया उनकी वहीं मौत हो गई.

मिर्ज़ा साहब को जो आम्दनी होती थी वो दरबार से होती थी उस वक़्त मगर जब तख़्त पर बादशाह ही नही रहे तो फिर आम्दानी की क्या बात।
अंग्रेजों ने उनकी पेंशन बंद कर रखी थी बहुत चक्कर लगाने के बाद उन्हे ये कहा गया की अगर उनको पेंशन चाहिए तो कलकत्ता जाना होगा, उन्हे वहीं ब्रिटिश सरकार के अफसरों से कुछ उम्मीद है। अब कोई चारा न था ग़ालिब के पास तो उन्होने उम्र के उस पड़ाव में दिल्ली से कलकत्ता का सफर तय किया और वहाँ से भी नाउम्मीद होकर चले आए.
ग़ालिब ने हर तरह के शेर कहे और उनकी लिखावट कुछ इस तरह की थी की वो दिल तक उतर जाती थी और आज भी उसकी वही बात है उस वक़्त उनकी शोहरत दूसरे मुल्कों तक जा पहुंची थी. 19 वीं 20 वीं सदी के उर्दू और फ़ारसी के सबसे बड़े शायरों में उनका नाम शुमार होता है. और जब भी उर्दू शायरी का ज़िक्र आता है मिर्ज़ा ग़ालिब का नाम बड़े अदाब से लिया जाता है. वो इंसान चाहे जीतने भी बदनाम क्यों न हों मगर शायर बहुत आला दर्जे के थे. वो कहते हैं अपने लिए की : होगा कोई ऐसा जो ग़ालिब को न जाने । कहते है शायर तो अच्छा है पर बदनाम बहुत ॥

ग़ालिब ने जो अपने दोस्तों को ख़त लिखे वो भी बहुत ज़्यादा मशहूर हैं और उर्दू पढ़ने और उर्दू ज़बान को पसंद करने वालों में बहुत मक़बूल हैं, उन्हे दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला का खिताब मिला। 15 फरवरी 1869 को इस शायर ने इस फ़ानी दुनियाँ को आखरी सलाम किया और उठ कर चल दिये. मगर वो आज भी उर्दू और उर्दू शायरों उर्दू शायरी में ज़िंदा हैं, और जब तक ये ज़बान रहेगी तब तक उनका नाम इस अदब और आदाब से लिया जाएगा. ग़ालिब पुरानी दिल्ली के बल्लिमरान की गली में रहते थे और वो जिस मकान में रहते थे अब वहाँ उनके नाम का म्यूज़ियम बना दिया गया है जहां उनकी इस्तमाल की हुई कई सारी चीज़ें आज भी सहेज के रखी गईं है, ग़ालिब की क़ब्र हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के दरगाह के नजदीक बनाई गई हैं.

हुए मर के हम जो रुसवा हुए क्यों न ग़र्क़-ए-दरिया न कहीं जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार होता।
list of famous ghazal of Ghalib मिर्ज़ा ग़ालिब की मशहूर ग़ज़लें
होगा कोई ऐसा भी कि 'ग़ालिब' को
न जाने
शाइर तो वो अच्छा है प बदनाम बहुत
है
मिर्ज़ा ग़ालिब शायर तो सचमुच बहुत
अच्छे थे, यही वजह है की, ये Article
मैं आज लिख रहा हूँ। और आप पढ़ भी रहे हैं, अब बात आती है की मिर्ज़ा ग़ालिब की को मिर्ज़ा ग़ालिब की किन ग़ज़लों किन शेरों ने बनाया, अगर आप से कहा जाए की आप उन ग़ज़लों की एक List
बनाइए जो मिर्ज़ा ग़ालिब की बेहतरीन ग़ज़लें
हैं, तो शायद आप ये काम नहीं कर सकें काम वाकई में है भी बड़ा मुश्किल मगर ये
गुस्ताख़ी आज मैं करने जा रहा हूँ। जिसके लिए मैं माफ़ी पहले ही मांग लेता हूँ मिर्ज़ा
ग़ालिब की रूह से और उनके चाहने वालों से।
- हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी की हर ख़्वाहिश पे दम निकले
- आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
- दिल ही तो है न संगो खिश्त
- दिल-ए-नादां तुझे हुआ क्या है
- कोई उम्मीदबार नज़र नहीं आती
- ये ना थी हमारी क़िस्मत
- हर एक बात पे कहते हो तुम की तू क्या है
- बाज़ीचा-ए- एत्फ़ाल है दुनियाँ
- इश्क़ मुझको नहीं वहशत ही सही
- इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई
- मेहरबान हो के बुला लो
- ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
- दाइम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ
- दिल से तेरी निगाह जिगर तक
- फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
- जहां जहां तेरा नक़्श-ए-क़दम देखते हैं
- कोई दिन गर ज़िंदगानी और है
- ज़ुल्मत कदे में मेरे शबे ग़म का जोश है
- वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ
- अजब नाशत से चले जल्लाद के हम आगे
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर
ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर
भी कम निकले
डरे क्यूँ मेरा क़ातिल क्या रहेगा
उस की गर्दन पर
वो ख़ूँ जो चश्म-ए-तर से उम्र भर
यूँ दम-ब-दम निकले
निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आए
हैं लेकिन
बहुत बे-आबरू हो कर तिरे कूचे से
हम निकले
भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे क़ामत की
दराज़ी का
अगर इस तुर्रा-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म का
पेच-ओ-ख़म निकले
मगर लिखवाए कोई उस को ख़त तो हम से
लिखवाए
हुई सुब्ह और घर से कान पर रख कर
क़लम निकले
हुई इस दौर में मंसूब मुझ से
बादा-आशामी
फिर आया वो ज़माना जो जहाँ में
जाम-ए-जम निकले
हुई जिन से तवक़्क़ो' ख़स्तगी
की दाद पाने की
वो हम से भी ज़ियादा
ख़स्ता-ए-तेग़-ए-सितम निकले
मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने
और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर
पे दम निकले
कहाँ मय-ख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और
कहाँ वाइ'ज़
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था
कि हम निकले
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर
होते तक
दाम-ए-हर-मौज में है
हल्क़ा-ए-सद-काम-ए-नहंग
देखें क्या गुज़रे है क़तरे पे
गुहर होते तक
आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब
दिल का क्या रंग करूँ ख़ून-ए-जिगर
होते तक
ता-क़यामत शब-ए-फ़ुर्क़त में गुज़र
जाएगी उम्र
सात दिन हम पे भी भारी हैं सहर
होते तक
हम ने माना कि तग़ाफ़ुल न करोगे
लेकिन
ख़ाक हो जाएँगे हम तुम को ख़बर
होते तक
परतव-ए-ख़ुर से है शबनम को फ़ना की
ता'लीम
मैं भी हूँ एक इनायत की नज़र होते
तक
यक नज़र बेश नहीं फ़ुर्सत-ए-हस्ती ग़ाफ़िल
गर्मी-ए-बज़्म है इक रक़्स-ए-शरर
होते तक
ग़म-ए-हस्ती का 'असद' किस
से हो जुज़ मर्ग इलाज
शम्अ हर रंग में जलती है सहर होते
तक
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द से भर न आए क्यूँ
दिल ही तो है न संग-ओ-ख़िश्त दर्द
से भर न आए क्यूँ
रोएँगे हम हज़ार बार कोई हमें सताए
क्यूँ
दैर नहीं हरम नहीं दर नहीं आस्ताँ
नहीं
बैठे हैं रहगुज़र पे हम ग़ैर हमें
उठाए क्यूँ
जब वो जमाल-ए-दिल-फ़रोज़
सूरत-ए-मेहर-ए-नीमरोज़
आप ही हो नज़्ज़ारा-सोज़ पर्दे में
मुँह छुपाए क्यूँ
दश्ना-ए-ग़म्ज़ा जाँ-सिताँ
नावक-ए-नाज़ बे-पनाह
तेरा ही अक्स-ए-रुख़ सही सामने
तेरे आए क्यूँ
क़ैद-ए-हयात ओ बंद-ए-ग़म अस्ल में
दोनों एक हैं
मौत से पहले आदमी ग़म से नजात पाए
क्यूँ
हुस्न और उस पे हुस्न-ए-ज़न रह गई
बुल-हवस की शर्म
अपने पे ए'तिमाद
है ग़ैर को आज़माए क्यूँ
वाँ वो ग़ुरूर-ए-इज्ज़-ओ-नाज़ याँ
ये हिजाब-ए-पास-ए-वज़अ
राह में हम मिलें कहाँ बज़्म में
वो बुलाए क्यूँ
हाँ वो नहीं ख़ुदा-परस्त जाओ वो
बेवफ़ा सही
जिस को हो दीन ओ दिल अज़ीज़ उस की
गली में जाए क्यूँ
'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता
के बग़ैर कौन से काम बंद हैं
रोइए ज़ार ज़ार क्या कीजिए हाए हाए
क्यूँ
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
दिल-ए-नादाँ तुझे हुआ क्या है
आख़िर इस दर्द की दवा क्या है
हम हैं मुश्ताक़ और वो बे-ज़ार
या इलाही ये माजरा क्या है
मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ
काश पूछो कि मुद्दआ' क्या
है
जब कि तुझ बिन नहीं कोई मौजूद
फिर ये हंगामा ऐ ख़ुदा क्या है
ये परी-चेहरा लोग कैसे हैं
ग़म्ज़ा ओ इश्वा ओ अदा क्या है
शिकन-ए-ज़ुल्फ़-ए-अंबरीं क्यूँ है
निगह-ए-चश्म-ए-सुरमा सा क्या है
सब्ज़ा ओ गुल कहाँ से आए हैं
अब्र क्या चीज़ है हवा क्या है
हम को उन से वफ़ा की है उम्मीद
जो नहीं जानते वफ़ा क्या है
हाँ भला कर तिरा भला होगा
और दरवेश की सदा क्या है
जान तुम पर निसार करता हूँ
मैं नहीं जानता दुआ क्या है
मैं ने माना कि कुछ नहीं 'ग़ालिब'
मुफ़्त हाथ आए तो बुरा क्या है
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई उम्मीद बर नहीं आती
कोई सूरत नज़र नहीं आती
मौत का एक दिन मुअय्यन है
नींद क्यूँ रात भर नहीं आती
आगे आती थी हाल-ए-दिल पे हँसी
अब किसी बात पर नहीं आती
जानता हूँ सवाब-ए-ताअत-ओ-ज़ोहद
पर तबीअत इधर नहीं आती
है कुछ ऐसी ही बात जो चुप हूँ
वर्ना क्या बात कर नहीं आती
क्यूँ न चीख़ूँ कि याद करते हैं
मेरी आवाज़ गर नहीं आती
दाग़-ए-दिल गर नज़र नहीं आता
बू भी ऐ चारागर नहीं आती
हम वहाँ हैं जहाँ से हम को भी
कुछ हमारी ख़बर नहीं आती
मरते हैं आरज़ू में मरने की
मौत आती है पर नहीं आती
काबा किस मुँह से जाओगे 'ग़ालिब'
शर्म तुम को मगर नहीं आती
ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
ये न थी हमारी क़िस्मत कि
विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार
होता
तिरे वा'दे
पर जिए हम तो ये जान झूट जाना
कि ख़ुशी से मर न जाते अगर ए'तिबार
होता
तिरी नाज़ुकी से जाना कि बँधा था
अहद बोदा
कभी तू न तोड़ सकता अगर उस्तुवार
होता
कोई मेरे दिल से पूछे तिरे
तीर-ए-नीम-कश को
ये ख़लिश कहाँ से होती जो जिगर के
पार होता
ये कहाँ की दोस्ती है कि बने हैं
दोस्त नासेह
कोई चारासाज़ होता कोई ग़म-गुसार
होता
रग-ए-संग से टपकता वो लहू कि फिर न
थमता
जिसे ग़म समझ रहे हो ये अगर शरार
होता
ग़म अगरचे जाँ-गुसिल है प कहाँ
बचें कि दिल है
ग़म-ए-इश्क़ गर न होता
ग़म-ए-रोज़गार होता
कहूँ किस से मैं कि क्या है
शब-ए-ग़म बुरी बला है
मुझे क्या बुरा था मरना अगर एक बार
होता
हुए मर के हम जो रुस्वा हुए क्यूँ
न ग़र्क़-ए-दरिया
न कभी जनाज़ा उठता न कहीं मज़ार
होता
उसे कौन देख सकता कि यगाना है वो
यकता
जो दुई की बू भी होती तो कहीं
दो-चार होता
ये मसाईल-ए-तसव्वुफ़ ये तिरा बयान 'ग़ालिब'
तुझे हम वली समझते जो न
बादा-ख़्वार होता
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू क्या है
हर एक बात पे कहते हो तुम कि तू
क्या है
तुम्हीं कहो कि ये
अंदाज़-ए-गुफ़्तुगू क्या है
न शो'ले
में ये करिश्मा न बर्क़ में ये अदा
कोई बताओ कि वो शोख़-ए-तुंद-ख़ू
क्या है
ये रश्क है कि वो होता है हम-सुख़न
तुम से
वगर्ना ख़ौफ़-ए-बद-आमोज़ी-ए-अदू
क्या है
चिपक रहा है बदन पर लहू से पैराहन
हमारे जैब को अब हाजत-ए-रफ़ू क्या
है
जला है जिस्म जहाँ दिल भी जल गया
होगा
कुरेदते हो जो अब राख जुस्तुजू
क्या है
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं
क़ाइल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू
क्या है
वो चीज़ जिस के लिए हम को हो
बहिश्त अज़ीज़
सिवाए बादा-ए-गुलफ़ाम-ए-मुश्क-बू
क्या है
पियूँ शराब अगर ख़ुम भी देख लूँ
दो-चार
ये शीशा ओ क़दह ओ कूज़ा ओ सुबू
क्या है
रही न ताक़त-ए-गुफ़्तार और अगर हो
भी
तो किस उमीद पे कहिए कि आरज़ू क्या
है
हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है
इतराता
वगर्ना शहर में 'ग़ालिब' की
आबरू क्या है
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे आगे
बाज़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मिरे
आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मिरे आगे
इक खेल है औरंग-ए-सुलैमाँ मिरे
नज़दीक
इक बात है एजाज़-ए-मसीहा मिरे आगे
जुज़ नाम नहीं सूरत-ए-आलम मुझे
मंज़ूर
जुज़ वहम नहीं हस्ती-ए-अशिया मिरे
आगे
होता है निहाँ गर्द में सहरा मिरे
होते
घिसता है जबीं ख़ाक पे दरिया मिरे
आगे
मत पूछ कि क्या हाल है मेरा तिरे
पीछे
तू देख कि क्या रंग है तेरा मिरे
आगे
सच कहते हो ख़ुद-बीन ओ ख़ुद-आरा
हूँ न क्यूँ हूँ
बैठा है बुत-ए-आइना-सीमा मिरे आगे
फिर देखिए
अंदाज़-ए-गुल-अफ़्शानी-ए-गुफ़्तार
रख दे कोई पैमाना-ए-सहबा मिरे आगे
नफ़रत का गुमाँ गुज़रे है मैं रश्क
से गुज़रा
क्यूँकर कहूँ लो नाम न उन का मिरे
आगे
ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है
मुझे कुफ़्र
काबा मिरे पीछे है कलीसा मिरे आगे
आशिक़ हूँ प माशूक़-फ़रेबी है मिरा
काम
मजनूँ को बुरा कहती है लैला मिरे
आगे
ख़ुश होते हैं पर वस्ल में यूँ मर
नहीं जाते
आई शब-ए-हिज्राँ की तमन्ना मिरे
आगे
है मौजज़न इक क़ुल्ज़ुम-ए-ख़ूँ काश
यही हो
आता है अभी देखिए क्या क्या मिरे
आगे
गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में
तो दम है
रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मिरे आगे
हम-पेशा ओ हम-मशरब ओ हमराज़ है
मेरा
ग़ालिब' को
बुरा क्यूँ कहो अच्छा मिरे आगे
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही
इश्क़ मुझ को नहीं वहशत ही सही
मेरी वहशत तिरी शोहरत ही सही
क़त्अ कीजे न तअल्लुक़ हम से
कुछ नहीं है तो अदावत ही सही
मेरे होने में है क्या रुस्वाई
ऐ वो मज्लिस नहीं ख़ल्वत ही सही
हम भी दुश्मन तो नहीं हैं अपने
ग़ैर को तुझ से मोहब्बत ही सही
अपनी हस्ती ही से हो जो कुछ हो
आगही गर नहीं ग़फ़लत ही सही
उम्र हर-चंद कि है बर्क़-ए-ख़िराम
दिल के ख़ूँ करने की फ़ुर्सत ही
सही
हम कोई तर्क-ए-वफ़ा करते हैं
न सही इश्क़ मुसीबत ही सही
कुछ तो दे ऐ फ़लक-ए-ना-इंसाफ़
आह ओ फ़रियाद की रुख़्सत ही सही
हम भी तस्लीम की ख़ू डालेंगे
बे-नियाज़ी तिरी आदत ही सही
यार से छेड़ चली जाए 'असद'
गर नहीं वस्ल तो हसरत ही सही
इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई
इब्न-ए-मरियम हुआ करे कोई
मेरे दुख की दवा करे कोई
शरअ' ओ आईन पर मदार
सही
ऐसे क़ातिल का क्या करे कोई
चाल जैसे कड़ी कमान का तीर
दिल में ऐसे के जा करे कोई
बात पर वाँ ज़बान कटती है
वो कहें और सुना करे कोई
बक रहा हूँ जुनूँ में क्या क्या
कुछ
कुछ न समझे ख़ुदा करे कोई
न सुनो गर बुरा कहे कोई
न कहो गर बुरा करे कोई
रोक लो गर ग़लत चले कोई
बख़्श दो गर ख़ता करे कोई
कौन है जो नहीं है हाजत-मंद
किस की हाजत रवा करे कोई
क्या किया ख़िज़्र ने सिकंदर से
अब किसे रहनुमा करे कोई
जब तवक़्क़ो ही उठ गई 'ग़ालिब'
क्यूँ किसी का गिला करे कोई
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
मेहरबाँ हो के बुला लो मुझे चाहो
जिस वक़्त
मैं गया वक़्त नहीं हूँ कि फिर आ
भी न सकूँ
ज़ोफ़ में ताना-ए-अग़्यार का शिकवा
क्या है
बात कुछ सर तो नहीं है कि उठा भी न
सकूँ
ज़हर मिलता ही नहीं मुझ को सितमगर
वर्ना
क्या क़सम है तिरे मिलने की कि खा
भी न सकूँ
इस क़दर ज़ब्त कहाँ है कभी आ भी न
सकूँ
सितम इतना तो न कीजे कि उठा भी न
सकूँ
लग गई आग अगर घर को तो अंदेशा क्या
शो'ला-ए-दिल तो
नहीं है कि बुझा भी न सकूँ
तुम न आओगे तो मरने की हैं सौ
तदबीरें
मौत कुछ तुम तो नहीं हो कि बुला भी
न सकूँ
हँस के बुलवाइए मिट जाएगा सब दिल
का गिला
क्या तसव्वुर है तुम्हारा कि मिटा
भी न सकूँ
ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के
हम रहें यूँ तिश्ना-लब पैग़ाम के
ख़स्तगी का तुम से क्या शिकवा कि
ये
हथकण्डे हैं चर्ख़-ए-नीली-फ़ाम के
ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो
हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के
रात पी ज़मज़म पे मय और सुब्ह-दम
धोए धब्बे जामा-ए-एहराम के
दिल को आँखों ने फँसाया क्या मगर
ये भी हल्क़े हैं तुम्हारे दाम के
शाह के है ग़ुस्ल-ए-सेह्हत की ख़बर
देखिए कब दिन फिरें हम्माम के
इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा
कर दिया
वर्ना हम भी आदमी थे काम के
दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ मैं
दाइम पड़ा हुआ तिरे दर पर नहीं हूँ
मैं
ख़ाक ऐसी ज़िंदगी पे कि पत्थर नहीं
हूँ मैं
क्यूँ गर्दिश-ए-मुदाम से घबरा न
जाए दिल
इंसान हूँ पियाला ओ साग़र नहीं हूँ
मैं
या-रब ज़माना मुझ को मिटाता है किस
लिए
लौह-ए-जहाँ पे हर्फ़-ए-मुकर्रर
नहीं हूँ मैं
हद चाहिए सज़ा में उक़ूबत के
वास्ते
आख़िर गुनाहगार हूँ काफ़र नहीं हूँ
मैं
किस वास्ते अज़ीज़ नहीं जानते मुझे
लअ'ल ओ ज़मुर्रद ओ
ज़र ओ गौहर नहीं हूँ मैं
रखते हो तुम क़दम मिरी आँखों से
क्यूँ दरेग़
रुत्बे में महर-ओ-माह से कम-तर
नहीं हूँ मैं
करते हो मुझ को मनअ-ए-क़दम-बोस किस
लिए
क्या आसमान के भी बराबर नहीं हूँ
मैं
'ग़ालिब' वज़ीफ़ा-ख़्वार
हो दो शाह को दुआ
वो दिन गए कि कहते थे नौकर नहीं
हूँ मैं
दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई
दिल से तिरी निगाह जिगर तक उतर गई
दोनों को इक अदा में रज़ा-मंद कर
गई
शक़ हो गया है सीना ख़ुशा
लज़्ज़त-ए-फ़राग़
तकलीफ़-ए-पर्दा-दारी-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर
गई
वो बादा-ए-शबाना की सरमस्तियाँ
कहाँ
उठिए बस अब कि
लज़्ज़त-ए-ख़्वाब-ए-सहर गई
उड़ती फिरे है ख़ाक मिरी कू-ए-यार
में
बारे अब ऐ हवा हवस-ए-बाल-ओ-पर गई
देखो तो
दिल-फ़रेबी-ए-अंदाज़-ए-नक़्श-ए-पा
मौज-ए-ख़िराम-ए-यार भी क्या गुल
कतर गई
हर बुल-हवस ने हुस्न-परस्ती शिआ'र
की
अब आबरू-ए-शेवा-ए-अहल-ए-नज़र गई
नज़्ज़ारे ने भी काम किया वाँ
नक़ाब का
मस्ती से हर निगह तिरे रुख़ पर
बिखर गई
फ़र्दा ओ दी का तफ़रक़ा यक बार मिट
गया
कल तुम गए कि हम पे क़यामत गुज़र
गई
मारा ज़माने ने असदुल्लाह ख़ाँ
तुम्हें
वो वलवले कहाँ वो जवानी किधर गई
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
फिर मुझे दीदा-ए-तर याद आया
दिल जिगर तिश्ना-ए-फ़रयाद आया
दम लिया था न क़यामत ने हनूज़
फिर तिरा वक़्त-ए-सफ़र याद आया
सादगी-हा-ए-तमन्ना या'नी
फिर वो नैरंग-ए-नज़र याद आया
उज़्र-ए-वामांदगी ऐ हसरत-ए-दिल
नाला करता था जिगर याद आया
ज़िंदगी यूँ भी गुज़र ही जाती
क्यूँ तिरा राहगुज़र याद आया
क्या ही रिज़वाँ से लड़ाई होगी
घर तिरा ख़ुल्द में गर याद आया
आह वो जुरअत-ए-फ़रियाद कहाँ
दिल से तंग आ के जिगर याद आया
फिर तिरे कूचे को जाता है ख़याल
दिल-ए-गुम-गश्ता मगर याद आया
कोई वीरानी सी वीरानी है
दश्त को देख के घर याद आया
मैं ने मजनूँ पे लड़कपन में 'असद'
संग उठाया था कि सर याद आया
वस्ल में हिज्र का डर याद आया
ऐन जन्नत में सक़र याद आया
जहाँ तेरा नक़्श-ए-क़दम देखते हैं
जहाँ तेरा नक़्श-ए-क़दम देखते हैं
ख़याबाँ ख़याबाँ इरम देखते हैं
दिल-आशुफ़्तगाँ ख़ाल-ए-कुंज-ए-दहन
के
सुवैदा में सैर-ए-अदम देखते हैं
तिरे सर्व-क़ामत से इक क़द्द-ए-आदम
क़यामत के फ़ित्ने को कम देखते हैं
तमाशा कि ऐ महव-ए-आईना-दारी
तुझे किस तमन्ना से हम देखते हैं
सुराग़-ए-तफ़-ए-नाला ले दाग़-ए-दिल
से
कि शब-रौ का नक़्श-ए-क़दम देखते
हैं
बना कर फ़क़ीरों का हम भेस 'ग़ालिब'
तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं
किसू को ज़-ख़ुद रस्ता कम देखते
हैं
कि आहू को पाबंद-ए-रम देखते हैं
ख़त-ए-लख़्त-ए-दिल यक-क़लम देखते
हैं
मिज़ा को जवाहर रक़म देखते हैं
कोई दिन गर ज़िंदगानी और है
कोई दिन गर ज़िंदगानी और है
अपने जी में हम ने ठानी और है
आतिश-ए-दोज़ख़ में ये गर्मी कहाँ
सोज़-ए-ग़म-हा-ए-निहानी और है
बार-हा देखी हैं उन की रंजिशें
पर कुछ अब के सरगिरानी और है
दे के ख़त मुँह देखता है नामा-बर
कुछ तो पैग़ाम-ए-ज़बानी और है
क़ाता-ए-एमार है अक्सर नुजूम
वो बला-ए-आसमानी और है
हो चुकीं 'ग़ालिब' बलाएँ
सब तमाम
एक मर्ग-ए-ना-गहानी और है
ज़ुल्मत-कदे में मेरे शब-ए-ग़म का जोश है
ज़ुल्मत-कदे में मेरे शब-ए-ग़म का
जोश है
इक शम्अ है दलील-ए-सहर सो ख़मोश है
ने मुज़्दा-ए-विसाल न
नज़्ज़ारा-ए-जमाल
मुद्दत हुई कि आश्ती-ए-चश्म-ओ-गोश
है
मय ने किया है हुस्न-ए-ख़ुद-आरा को
बे-हिजाब
ऐ शौक़! हाँ इजाज़त-ए-तस्लीम-ए-होश
है
गौहर को अक़्द-ए-गर्दन-ए-ख़ूबाँ
में देखना
क्या औज पर सितारा-ए-गौहर-फ़रोश है
दीदार बादा हौसला साक़ी निगाह मस्त
बज़्म-ए-ख़याल मय-कदा-ए-बे-ख़रोश
है
ऐ ताज़ा
वारदान-ए-बिसात-ए-हवा-ए-दिल
ज़िन्हार अगर तुम्हें
हवस-ए-नाए-ओ-नोश है
देखो मुझे जो दीदा-ए-इबरत-निगाह हो
मेरी सुनो जो गोश-ए-नसीहत-नेओश है
साक़ी-ब-जल्वा
दुश्मन-ए-ईमान-ओ-आगही
मुतरिब ब-नग़्मा
रहज़न-ए-तम्कीन-ओ-होश है
या शब को देखते थे कि हर
गोशा-ए-बिसात
दामान-ए-बाग़बान ओ कफ़-ए-गुल-फ़रोश
है
लुफ़्त-ए-ख़िरम-ए-साक़ी ओ
ज़ौक़-ए-सदा-ए-चंग
ये जन्नत-ए-निगाह वो फ़िरदौस-ए-गोश
है
या सुब्ह-दम जो देखिए आ कर तो
बज़्म में
ने वो सुरूर ओ सोज़ न जोश-ओ-ख़रोश
है
दाग़-ए-फ़िराक़-ए-सोहबत-ए-शब की
जली हुई
इक शम्अ रह गई है सो वो भी ख़मोश
है
आते हैं ग़ैब से ये मज़ामीं ख़याल
में
'ग़ालिब' सरीर-ए-ख़ामा
नवा-ए-सरोश है
वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ
वो फ़िराक़ और वो विसाल कहाँ
वो शब-ओ-रोज़ ओ माह-ओ-साल कहाँ
फ़ुर्सत-ए-कारोबार-ए-शौक़ किसे
ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा-ए-जमाल कहाँ
दिल तो दिल वो दिमाग़ भी न रहा
शोर-ए-सौदा-ए-ख़त्त-ओ-ख़ाल कहाँ
थी वो इक शख़्स के तसव्वुर से
अब वो रानाई-ए-ख़याल कहाँ
ऐसा आसाँ नहीं लहू रोना
दिल में ताक़त जिगर में हाल कहाँ
हम से छूटा क़िमार-ख़ाना-ए-इश्क़
वाँ जो जावें गिरह में माल कहाँ
फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूँ
मैं कहाँ और ये वबाल कहाँ
मुज़्महिल हो गए क़वा ग़ालिब
वो अनासिर में ए'तिदाल
कहाँ
बोसे में वो मुज़ाइक़ा न करे
पर मुझे ताक़त-ए-सवाल कहाँ
फ़लक-ए-सिफ़्ला बे-मुहाबा है
इस सितम-गर को इंफ़िआल कहाँ
अजब नशात से जल्लाद के चले हैं हम आगे
अजब नशात से जल्लाद के चले हैं हम
आगे
कि अपने साए से सर पाँव से है दो
क़दम आगे
क़ज़ा ने था मुझे चाहा
ख़राब-ए-बादा-ए-उल्फ़त
फ़क़त ख़राब लिखा बस न चल सका क़लम
आगे
ग़म-ए-ज़माना ने झाड़ी
नशात-ए-इश्क़ की मस्ती
वगरना हम भी उठाते थे
अज़्ज़त-ए-अलम आगे
ख़ुदा के वास्ते दाद उस
जुनून-ए-शौक़ की देना
कि उस के दर पे पहुँचते हैं
नामा-बर से हम आगे
ये उम्र भर जो परेशानियाँ उठाई हैं
हम ने
तुम्हारे अइयो ऐ
तुर्रह-हा-ए-ख़म-ब-ख़म आगे
दिल ओ जिगर में पुर-अफ़्शा जो एक
मौजा-ए-ख़ूँ है
हम अपने ज़ोम में समझे हुए थे उस
को दम आगे
क़सम जनाज़े पे आने की मेरे खाते
हैं 'ग़ालिब'
हमेशा खाते थे जो मेरी जान की क़सम
आगे
Good to read about mirza ghalib
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