मैं जो हूँ जौन एलिया हूँ जनाब मेरा बेहद लिहाज कीजिएगा
कौन थे जौन
जौन एलिया जिसने न सिर्फ शायरी लिखी बल्कि उस शायरी का एक एक शेर जी कर दुनियाँ को दिखाया भी वो अपनी ज़िंदगी जैसे काग़ज़ पर उतार लेते अपनी नाकामियों अपनी बदनामियों अपनी कमजोरियों अपनी शराब पीने की लत ख़ुद उसका ढिंढोरा पीटते आम तौर पर लोग अपनी ऐसी बातें नुमाया नहीं किया करते मगर जौन को इन बातों से फर्क नहीं पड़ता था उनकी शायरी में जो एहसास है वो आप ख़ुद भी पढ़ के देख सकते हैं, वो जैसे किसी मुशायरे में होते थे वैसे ही आम लोगों के साथ होते थे कभी कुछ कभी कुछ मिजाज़ होता. हँसते हँसते रो देना रोते रोते हंस देना सच कहा था उन्होने की उनका बेहद लिहाज कीजिये.13 दिसम्बर 1931 को उत्तरप्रदेश के अमरोहा में हज़रत शफ़ीक़ हसन एलिया के घर जौन एलिया की पैदाइश हुई, शफ़ीक़ साहब ख़ुद भी शायर थे और उनका उस इलाके में बड़ा नाम था. इल्म की हर हद तक उनकी पहुँच थी इस वजह से उनके घर अक्सर ऐसे लोगों का ही आना जाना होता जो या तो इल्म की तलाश में होते या इल्म की खोज कर लौटे होते। नन्हा जौन इन्हीं लोगों से घिरा रहता शायद के खिलौनो की जगह वो किताबों से खेलते हों, क्योंकि घर में पढ़ाई लिखाई क ऐसा सख़्त मौहोल था इन्हे भी इल्म और बस इल्म की बातें ही समझ आतीं थीं और बहुत पहले से उन्होने शायरी करनी शुरू कर दी थी वो यूं कहते हैं अपनी हालत के बारे में..
तुम जब आओगी तो खोया हुआ पाओगी मुझे
मेरी तन्हाई में ख़्वाबों के सिवा कुछ भी नहीं
मेरे कमरे को सजाने की तमन्ना है तुम्हें
मेरे कमरे में किताबों के सिवा कुछ भी नहीं
इन किताबों ने बड़ा ज़ुल्म किया है मुझ पर
इन में इक रम्ज़ है जिस रम्ज़ का मारा हुआ ज़ेहन
मुज़्दा-ए-इशरत-ए-अंजाम नहीं पा सकता
ज़िंदगी में कभी आराम नहीं पा सकता
जौन और पाकिस्तान
खैर ! ये बातें थोड़ी देर बाद करेंगे अभी बात करते हैं उनकी ज़िंदगी की जब उनकी उम्र 26 साल की थी तब उन्हे ना चाहते हुए भी अपने प्यारे मुल्क हिंदुस्तान से पाकिस्तान जाना पड़ा और इस दर्द का इज़हार वो अक्सर किया करते थे वो कुछ ऐसे हालत थे जिनसे मजबूर होकर उन्हे ये हिजरत का दर्द सहना पड़ा। पाकिस्तान जा कर उन्होने करांची में अपना ठिकाना बना लिया। पढे लिखे बहुत थे इंग्लिश, उर्दू, हिन्दी, फारसी और उर्दू के उस्ताद थे वो तो उन्हे वहाँ काम की कमी नहीं रही उन्हे पाकिस्तान में वो दर्ज़ा हासिल है जो भारत में हरिवंश राय बच्चन को है पाकिस्तान में उन्होने लोगत कोमिटी का काम संभाला और बहुत बड़े बड़े ओहदे पर रहे.इनके भाई हिंदुस्तानी सिनेमा के जानेमाने नामों में से एक है कमाल अमरोही.जौन और उनकी ज़िंदगी
उन्होने न जाने कितनी ही ग़ज़लें लिखी और उन्हे सहेज कर नहीं रखा बहुत दोस्तों और उनके चाहने वालों ने बहुत कहा की वो अपनी ग़ज़लों की किताब छपवाएँ मगर उन्होने कभी इसकी इजाज़त न किसी को दी न ही ख़ुद ही कभी छपवाई इस तरह उनकी कई सारी ग़ज़लने आज हमारे पास नहीं रह गईं। अपनी ग़ज़लों की किताब (दीवान) न छपवाने के पीछे वो एक वजह बताते थे की जब वो छोटे थे तब उनके वालिद जनाब शाफ़िक़ हसन एलिया उनके पास आए वो उस दिन बहुत उदास थे उनको देख कर जौन भी उदास हो गए वो उन्हे गोद में उठा कर एक कमरे में ल गए और उनका हाथ अपने हाथ में लेकर कहा की जौन कसं खाओ की तुम जब बड़े हो जाओगे तब तुम मेरी ग़ज़लों की किताब (दीवान) ज़रूर छपवाओगे नन्हें जौन ने अपने वालिद से वादा किया की जब वो जब बड़े हो जाएंगे तो वो उनकी किताब छपवायंगे. मगर वो इयसा कर नहीं सके इस बात का ग़म उन्हे ज़िंदगी भर रहा इसलिए वो अपनी किताब नहीं छपवाना चाहते थे.जौन की मूहोब्बत
वो एक किस्सा सुनते थे की एक बार जब वो किसी मुशायरे में गए थे वहाँ एक लड़की उन्हे मिली और न जाने कैसे उस लड़की को उनसे मूहोब्बत हो गई वो उन्हे ख़त लिखा करती और अक्सर लिखा करती और कहती की वो उनसे बहुत मूहोब्बत करती है जौन ने भी कुछ दिनों बाद न चाहते हुए भी एक ख़त लिखा और उसमे लिखा की वो भी उनसे मूहोब्बत करते हैं मगर जौन के दिल में ऐसी कोई बात न थी बहुत दिनों तक ये सिलसिला चला। एक दिन जौन की उस लड़की से मुलाक़ात हुई और जौन ने उस से कह दिया की वो उससे मूहोब्बत नहीं करते और बात ख़त्म हुई, फिर कुछ दिन बाद जौन को किसी से पता कला की उस लड़की को टी. बी हो गई है, और उनदिनों ये जानलेवा बीमारी होती थी और इसका कोई पुख्ता इलाज नहीं था और एक दिन वो लड़की जिसे जौन अपनी ग़ज़लों में “फ़ारेहा” नाम से पुकारते हैं उसकी मौत हो गई ख़ून की उल्टियाँ करते करते जौन के दिल पर हादसे ने बहुत असर डाला वो कहते हैं...तुम जिस ज़मीन पर हो मैं उस का ख़ुदा नहीं
बस सर- ब-सर अज़ीयत-ओ-आज़ार ही रहो
बेज़ार हो गई हो बहुत ज़िन्दगी से तुम
जब बस में कुछ नहीं है तो बेज़ार ही रहो
तुम को यहाँ के साया-ए-परतौ से क्या ग़रज़
तुम अपने हक़ में बीच की दीवार ही रहो
मैं इब्तदा-ए-इश्क़ में बेमहर ही रहा
तुम इन्तहा-ए-इश्क़ का मियार ही रहो
तुम ख़ून थूकती हो ये सुन कर ख़ुशी हुई
इस रंग इस अदा में भी पुरकार ही रहो
मैंने ये कब कहा था के मुहब्बत में है नजात
मैंने ये कब कहा था के वफ़दार ही रहो
अपनी मता-ए-नाज़ लुटा कर मेरे लिये
बाज़ार-ए-इल्तफ़ात में नादार ही रहो
फ़ारेहा के गुज़र जाने के बाद जैसे जौन ख़ुद से गुज़र गए दिन रात दर्द और दर्द से निकल कर शराब में डूब जाते. अपनी ज़िंदगी जैसे उन्होने बर्बाद करने की सोच ली थी कहते हैं की इस हादसे के बाद वो 10 साल तक अपने कमरे से नहीं निकले उन्होने एक भी शेर नहीं कहा बस दिन रात शराब में डूबे रहते फिर उनके एक दोस्त सैयद सलीम जाफरी ने उन्हे बहुत मजबूर कर के उन्हे घर से निकालाऔर फिर किसी तरह मुशायरों में ले जाने में कामयाब रहे.
जौन और ज़ाहिदा हिना
इस दर्द और शराब के मौसम में किसी तरह मौसम बदला जब वो उर्दू की एक किताब “इंशा” के सिलसिले में ज़ाहिदा हीना से मिले काम के सिलसिले में उन्हे अक्सर मिलना होता था न जाने कब उन्हे उन्हे ऐसा लगा की उन्हे मूहोब्बत हो गई है जौन की तो खैर या तो ख़ुदा ही जाने या जौन जाने की उनको ज़ाहिदा से मूहोब्बत थी की नहीं क्योंकि जौन कहते थे अपनी मूहोब्बत के बारे में की...शायद मुझे किसी से मूहोब्बत नहीं हुई
मगर यकीन सभी को दिलाता रहा हूँ मैं
खैर ज़ाहिदा हीना से उन्होने शादी कर ली और इस शादी से उनके तीन बच्चे भी हुए ज़िंदगी गूजरनी ऐसे भी मुश्किल हुआ करती है और अगर आपको गुज़ारनी हो किसी शायर के साथ तो वो और एक मुश्किल काम है और उसपर फिर हमारे जौन साहब माशाअल्लाह हवा के हाथ में हथकड़ी पहनना एक बार फिर आसान है मगर जौन को कहाँ सुकून था वो तो बस जौन थे 1984 के आते आते ये शादी फैब टूट गई। वो कहते हैं अपने बारे में की....
आप अपना ग़ुबार थे हम तो
याद थे यादगार थे हम तो
पर्दगी हम से क्यूँ रखा पर्दा
तेरे ही पर्दा-दार थे हम तो
वक़्त की धूप में तुम्हारे लिए
शजर-ए-साया-दार थे हम तो
उड़े जाते हैं धूल के मानिंद
आँधियों पर सवार थे हम तो
हम ने क्यूँ ख़ुद पे ए'तिबार किया
सख़्त बे-ए'तिबार थे हम तो
शर्म है अपनी बार बारी की
बे-सबब बार बार थे हम तो
क्यूँ हमें कर दिया गया मजबूर
ख़ुद ही बे-इख़्तियार थे हम तो
तुम ने कैसे भुला दिया हम को
तुम से ही मुस्तआ'र थे हम तो
ख़ुश न आया हमें जिए जाना
लम्हे लम्हे पे बार थे हम तो
सह भी लेते हमारे ता'नों को
जान-ए-मन जाँ-निसार थे हम तो
ख़ुद को दौरान-ए-हाल में अपने
बे-तरह नागवार थे हम तो
तुम ने हम को भी कर दिया बरबाद
नादिर-ए-रोज़गार थे हम तो
हम को यारों ने याद भी न रखा
'जौन' यारों के यार थे हम तो
इस तरह तमाम हो गए जौन खून थूकने का ज़िक्र किया था उन्होने और 8 नवम्बर 2002 को ज़िंदगी के 70 साल बिता कर कराची के एक कमरे में ख़ून थूकते थूकते चले गए.
जौन और उनकी शख़्सियत
वो एक अलग सोच के इंसान,थे वो अक्सर कहते की उनका इल्म ही उनकी इस हाल का ज़िम्मेदार है वो हर चीज़ को अलग तरीके से देखते थे. उनका दुनियाँ को देखने का नज़रिया बिलकुल अलग था इस वजह से वो इस दुनियाँ के रस्मों रिश्तों और तरीकों को नहीं मानते थे। वो हर हद को तोड़ देना चाहते थे वो शायद पहले ऐसे शायर हैं जिन्हे नौजवानो के बीच इतना पसंद किया जाता है वो लाखों आने वाले शायरों और शायरी पसंद करने वाले लोगों के दिल की धड़कन हैं जिनकी ख़ुद दिल की धड़कन नहीं रही. यूट्यूब पर उनकी विडियो देखने से पता चलता है वो शक्स कितना अकेला है कितना झुंजला जाता है, अचानक शेर कहते कहते स्टेज पर ही सीगरेट पीने लगते थे। हिंदुस्तान के मशहूर शायर राहत इंदौरी एक इंटरविव में जौन एलिया को याद करते हुए कहते हैं की, एक बार वो पाकिस्तान गए किसी मुशायरे के लिए तो वहाँ उनको मौका मिला जौन साहब से मिलने का उन्हे उनके साथ ही कार से जाना था। मुशायरे के लिए बहुत दूर चलने के बाद राहत साहब ने जौन साहब से पूछा की, अभी कितनी दूर का रास्ता बचा है तो जौन साहब ने कहा बस दो पैग का रास्ता है यहाँ से.अचानक उठ कर चले जाते ये कहकर की बस मन नहीं लग रहा जानी ! कुछ वो इस दुनिया को नहीं समझ सके और कुछ ये दुनियाँ उन्हे नहीं समझ सकी.
जो गुज़ारी न जा सकी हुमसे
हमने वो ज़िंदगी गुज़ारी है
कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे
हालत-ए-हाल के सबब हालत-ए-हाल ही गई
बे-दिली क्या यूँही दिन गुज़र जाएँगे
इक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
बहुत दिल को कुशादा कर लिया क्या
आदमी वक़्त पर गया होगा
ठीक है ख़ुद को हम बदलते हैं
अभी इक शोर सा उठा है कहीं
सर ही अब फोड़िए नदामत में
जौन एलिया किस अंदाज़ में किसी मुशायरे में अपना कलाम पेश करते थे, इस विडियो को देखना चाहिए आपको वो किस कदर खो जाया करते थे, शेर कहते कहते और ज़ार ज़ार रोते थे.
Video Courtesy - youtube
जौन एलिया की शायरी
जौन एलिया की शायरी की कुछ झलकियाँ
https://www.youtube.com/playlist?list=PLEb5dWXpQR1HVc_3efBo8ZdJp-AUo5LUN
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उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या
उम्र गुज़रेगी इम्तिहान में क्या
दाग़ ही देंगे मुझ को दान में क्या
मेरी हर बात बे-असर ही रही
नक़्स है कुछ मिरे बयान में क्या
मुझ को तो कोई टोकता भी नहीं
यही होता है ख़ानदान में क्या
अपनी महरूमियाँ छुपाते हैं
हम ग़रीबों की आन-बान में क्या
ख़ुद को जाना जुदा ज़माने से
आ गया था मिरे गुमान में क्या
शाम ही से दुकान-ए-दीद है बंद
नहीं नुक़सान तक दुकान में क्या
ऐ मिरे सुब्ह-ओ-शाम-ए-दिल की शफ़क़
तू नहाती है अब भी बान में क्या
बोलते क्यूँ नहीं मिरे हक़ में
आबले पड़ गए ज़बान में क्या
ख़ामुशी कह रही है कान में क्या
आ रहा है मिरे गुमान में क्या
दिल कि आते हैं जिस को ध्यान बहुत
ख़ुद भी आता है अपने ध्यान में क्या
वो मिले तो ये पूछना है मुझे
अब भी हूँ मैं तिरी अमान में क्या
यूँ जो तकता है आसमान को तू
कोई रहता है आसमान में क्या
है नसीम-ए-बहार गर्द-आलूद
ख़ाक उड़ती है उस मकान में क्या
ये मुझे चैन क्यूँ नहीं पड़ता
एक ही शख़्स था जहान में क्या
नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम
नया इक रिश्ता पैदा क्यूँ करें हम
बिछड़ना है तो झगड़ा क्यूँ करें हम
ख़मोशी से अदा हो रस्म-ए-दूरी
कोई हंगामा बरपा क्यूँ करें हम
ये काफ़ी है कि हम दुश्मन नहीं हैं
वफ़ा-दारी का दावा क्यूँ करें हम
वफ़ा इख़्लास क़ुर्बानी मोहब्बत
अब इन लफ़्ज़ों का पीछा क्यूँ करें हम
हमारी ही तमन्ना क्यूँ करो तुम
तुम्हारी ही तमन्ना क्यूँ करें हम
किया था अहद जब लम्हों में हम ने
तो सारी उम्र ईफ़ा क्यूँ करें हम
नहीं दुनिया को जब पर्वा हमारी
तो फिर दुनिया की पर्वा क्यूँ करें हम
ये बस्ती है मुसलामानों की बस्ती
यहाँ कार-ए-मसीहा क्यूँ करें हम
बे-क़रारी सी बे-क़रारी है
बे-क़रारी सी बे-क़रारी है
वस्ल है और फ़िराक़ तारी है
जो गुज़ारी न जा सकी हम से
हम ने वो ज़िंदगी गुज़ारी है
निघरे क्या हुए कि लोगों पर
अपना साया भी अब तो भारी है
बिन तुम्हारे कभी नहीं आई
क्या मिरी नींद भी तुम्हारी है
आप में कैसे आऊँ मैं तुझ बिन
साँस जो चल रही है आरी है
उस से कहियो कि दिल की गलियों में
रात दिन तेरी इंतिज़ारी है
हिज्र हो या विसाल हो कुछ हो
हम हैं और उस की यादगारी है
इक महक सम्त-ए-दिल से आई थी
मैं ये समझा तिरी सवारी है
हादसों का हिसाब है अपना
वर्ना हर आन सब की बारी है
ख़ुश रहे तू कि ज़िंदगी अपनी
उम्र भर की उमीद-वारी है
कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे
कितने ऐश से रहते होंगे कितने इतराते होंगे
जाने कैसे लोग वो होंगे जो उस को भाते होंगे
शाम हुए ख़ुश-बाश यहाँ के मेरे पास आ जाते हैं
मेरे बुझने का नज़्ज़ारा करने आ जाते होंगे
वो जो न आने वाला है ना उस से मुझ को मतलब था
आने वालों से क्या मतलब आते हैं आते होंगे
उस की याद की बाद-ए-सबा में और तो क्या होता होगा
यूँही मेरे बाल हैं बिखरे और बिखर जाते होंगे
यारो कुछ तो ज़िक्र करो तुम उस की क़यामत बाँहों का
वो जो सिमटते होंगे उन में वो तो मर जाते होंगे
मेरा साँस उखड़ते ही सब बैन करेंगे रोएँगे
या'नी मेरे बा'द भी या'नी साँस लिए जाते होंगे
हालत-ए-हाल के सबब हालत-ए-हाल ही गई
हालत-ए-हाल के सबब हालत-ए-हाल ही गई
शौक़ में कुछ नहीं गया शौक़ की ज़िंदगी गई
तेरा फ़िराक़ जान-ए-जाँ ऐश था क्या मिरे लिए
या'नी तिरे फ़िराक़ में ख़ूब शराब पी गई
तेरे विसाल के लिए अपने कमाल के लिए
हालत-ए-दिल कि थी ख़राब और ख़राब की गई
उस की उमीद-ए-नाज़ का हम से ये मान था कि आप
उम्र गुज़ार दीजिए उम्र गुज़ार दी गई
एक ही हादसा तो है और वो ये कि आज तक
बात नहीं कही गई बात नहीं सुनी गई
बा'द भी तेरे जान-ए-जाँ दिल में रहा अजब समाँ
याद रही तिरी यहाँ फिर तिरी याद भी गई
उस के बदन को दी नुमूद हम ने सुख़न में और फिर
उस के बदन के वास्ते एक क़बा भी सी गई
मीना-ब-मीना मय-ब-मय जाम-ब-जाम जम-ब-जम
नाफ़-पियाले की तिरे याद अजब सही गई
कहनी है मुझ को एक बात आप से या'नी आप से
आप के शहर-ए-वस्ल में लज़्ज़त-ए-हिज्र भी गई
सेहन-ए-ख़याल-ए-यार में की न बसर शब-ए-फ़िराक़
जब से वो चाँदना गया जब से वो चाँदनी गई
अपने सब यार काम कर रहे हैं
अपने सब यार काम कर रहे हैं
अपने सब यार काम कर रहे हैं
और हम हैं कि नाम कर रहे हैं
तेग़-बाज़ी का शौक़ अपनी जगह
आप तो क़त्ल-ए-आम कर रहे हैं
दाद-ओ-तहसीन का ये शोर है क्यूँ
हम तो ख़ुद से कलाम कर रहे हैं
हम हैं मसरूफ़-ए-इंतिज़ाम मगर
जाने क्या इंतिज़ाम कर रहे हैं
है वो बेचारगी का हाल कि हम
हर किसी को सलाम कर रहे हैं
एक क़त्ताला चाहिए हम को
हम ये एलान-ए-आम कर रहे हैं
क्या भला साग़र-ए-सिफ़ाल कि हम
नाफ़-प्याले को जाम कर रहे हैं
हम तो आए थे अर्ज़-ए-मतलब को
और वो एहतिराम कर रहे हैं
न उठे आह का धुआँ भी कि वो
कू-ए-दिल में ख़िराम कर रहे हैं
उस के होंटों पे रख के होंट अपने
बात ही हम तमाम कर रहे हैं
हम अजब हैं कि उस के कूचे में
बे-सबब धूम-धाम कर रहे हैं
बे-दिली क्या यूँही दिन गुज़र जाएँगे
बे-दिली क्या यूँही दिन गुज़र जाएँगे
सिर्फ़ ज़िंदा रहे हम तो मर जाएँगे
रक़्स है रंग पर रंग हम-रक़्स हैं
सब बिछड़ जाएँगे सब बिखर जाएँगे
ये ख़राबातियान-ए-ख़िरद-बाख़्ता
सुब्ह होते ही सब काम पर जाएँगे
कितनी दिलकश हो तुम कितना दिल-जू हूँ मैं
क्या सितम है कि हम लोग मर जाएँगे
है ग़नीमत कि असरार-ए-हस्ती से हम
बे-ख़बर आए हैं बे-ख़बर जाएँगे
गाहे गाहे बस अब यही हो क्या
गाहे गाहे बस अब यही हो क्या
गाहे गाहे बस अब यही हो क्या
तुम से मिल कर बहुत ख़ुशी हो क्या
मिल रही हो बड़े तपाक के साथ
मुझ को यकसर भुला चुकी हो क्या
याद हैं अब भी अपने ख़्वाब तुम्हें
मुझ से मिल कर उदास भी हो क्या
बस मुझे यूँही इक ख़याल आया
सोचती हो तो सोचती हो क्या
अब मिरी कोई ज़िंदगी ही नहीं
अब भी तुम मेरी ज़िंदगी हो क्या
क्या कहा इश्क़ जावेदानी है!
आख़िरी बार मिल रही हो क्या
हाँ फ़ज़ा याँ की सोई सोई सी है
तो बहुत तेज़ रौशनी हो क्या
मेरे सब तंज़ बे-असर ही रहे
तुम बहुत दूर जा चुकी हो क्या
दिल में अब सोज़-ए-इंतिज़ार नहीं
शम-ए-उम्मीद बुझ गई हो क्या
इस समुंदर पे तिश्ना-काम हूँ मैं
बान तुम अब भी बह रही हो क्या
इक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
इक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
सब के दिल से उतर गया हूँ मैं
कैसे अपनी हँसी को ज़ब्त करूँ
सुन रहा हूँ कि घर गया हूँ मैं
क्या बताऊँ कि मर नहीं पाता
जीते-जी जब से मर गया हूँ मैं
अब है बस अपना सामना दर-पेश
हर किसी से गुज़र गया हूँ मैं
वही नाज़-ओ-अदा वही ग़म्ज़े
सर-ब-सर आप पर गया हूँ मैं
अजब इल्ज़ाम हूँ ज़माने का
कि यहाँ सब के सर गया हूँ मैं
कभी ख़ुद तक पहुँच नहीं पाया
जब कि वाँ उम्र भर गया हूँ मैं
तुम से जानाँ मिला हूँ जिस दिन से
बे-तरह ख़ुद से डर गया हूँ मैं
कू-ए-जानाँ में सोग बरपा है
कि अचानक सुधर गया हूँ मैं
बहुत दिल को कुशादा कर लिया क्या
बहुत दिल को कुशादा कर लिया क्या
ज़माने भर से वा'दा कर लिया क्या
तो क्या सच-मुच जुदाई मुझ से कर ली
तो ख़ुद अपने को आधा कर लिया क्या
हुनर-मंदी से अपनी दिल का सफ़्हा
मिरी जाँ तुम ने सादा कर लिया क्या
जो यकसर जान है उस के बदन से
कहो कुछ इस्तिफ़ादा कर लिया क्या
बहुत कतरा रहे हो मुग़्बचों से
गुनाह-ए-तर्क-ए-बादा कर लिया क्या
यहाँ के लोग कब के जा चुके हैं
सफ़र जादा-ब-जादा कर लिया क्या
उठाया इक क़दम तू ने न उस तक
बहुत अपने को माँदा कर लिया क्या
तुम अपनी कज-कुलाही हार बैठीं
बदन को बे-लिबादा कर लिया क्या
बहुत नज़दीक आती जा रही हो
बिछड़ने का इरादा कर लिया क्या
आदमी वक़्त पर गया होगा
आदमी वक़्त पर गया होगा
वक़्त पहले गुज़र गया होगा
वो हमारी तरफ़ न देख के भी
कोई एहसान धर गया होगा
ख़ुद से मायूस हो के बैठा हूँ
आज हर शख़्स मर गया होगा
शाम तेरे दयार में आख़िर
कोई तो अपने घर गया होगा
मरहम-ए-हिज्र था अजब इक्सीर
अब तो हर ज़ख़्म भर गया होगा
ठीक है ख़ुद को हम बदलते हैं
ठीक है ख़ुद को हम बदलते हैं
शुक्रिया मश्वरत का चलते हैं
हो रहा हूँ मैं किस तरह बरबाद
देखने वाले हाथ मलते हैं
है वो जान अब हर एक महफ़िल की
हम भी अब घर से कम निकलते हैं
क्या तकल्लुफ़ करें ये कहने में
जो भी ख़ुश है हम उस से जलते हैं
है उसे दूर का सफ़र दर-पेश
हम सँभाले नहीं सँभलते हैं
तुम बनो रंग तुम बनो ख़ुश्बू
हम तो अपने सुख़न में ढलते हैं
मैं उसी तरह तो बहलता हूँ
और सब जिस तरह बहलते हैं
है अजब फ़ैसले का सहरा भी
चल न पड़िए तो पाँव जलते हैं
अभी इक शोर सा उठा है कहीं
अभी इक शोर सा उठा है कहीं
कोई ख़ामोश हो गया है कहीं
है कुछ ऐसा कि जैसे ये सब कुछ
इस से पहले भी हो चुका है कहीं
तुझ को क्या हो गया कि चीज़ों को
कहीं रखता है ढूँढता है कहीं
जो यहाँ से कहीं न जाता था
वो यहाँ से चला गया है कहीं
आज शमशान की सी बू है यहाँ
क्या कोई जिस्म जल रहा है कहीं
हम किसी के नहीं जहाँ के सिवा
ऐसी वो ख़ास बात क्या है कहीं
तू मुझे ढूँड मैं तुझे ढूँडूँ
कोई हम में से रह गया है कहीं
कितनी वहशत है दरमियान-ए-हुजूम
जिस को देखो गया हुआ है कहीं
मैं तो अब शहर में कहीं भी नहीं
क्या मिरा नाम भी लिखा है कहीं
इसी कमरे से कोई हो के विदाअ'
इसी कमरे में छुप गया है कहीं
मिल के हर शख़्स से हुआ महसूस
मुझ से ये शख़्स मिल चुका है कहीं
सर ही अब फोड़िए नदामत में
सर ही अब फोड़िए नदामत में
नींद आने लगी है फ़ुर्क़त में
हैं दलीलें तिरे ख़िलाफ़ मगर
सोचता हूँ तिरी हिमायत में
रूह ने इश्क़ का फ़रेब दिया
जिस्म को जिस्म की अदावत में
अब फ़क़त आदतों की वर्ज़िश है
रूह शामिल नहीं शिकायत में
इश्क़ को दरमियाँ न लाओ कि मैं
चीख़ता हूँ बदन की उसरत में
ये कुछ आसान तो नहीं है कि हम
रूठते अब भी हैं मुरव्वत में
वो जो ता'मीर होने वाली थी
लग गई आग उस इमारत में
ज़िंदगी किस तरह बसर होगी
दिल नहीं लग रहा मोहब्बत में
हासिल-ए-कुन है ये जहान-ए-ख़राब
यही मुमकिन था इतनी उजलत में
फिर बनाया ख़ुदा ने आदम को
अपनी सूरत पे ऐसी सूरत में
और फिर आदमी ने ग़ौर किया
छिपकिली की लतीफ़ सनअ'त में
ऐ ख़ुदा जो कहीं नहीं मौजूद
क्या लिखा है हमारी क़िस्मत में
एक ही मुज़्दा सुब्ह लाती है
एक ही मुज़्दा सुब्ह लाती है
धूप आँगन में फैल जाती है
रंग-ए-मौसम है और बाद-ए-सबा
शहर कूचों में ख़ाक उड़ाती है
फ़र्श पर काग़ज़ उड़ते फिरते हैं
मेज़ पर गर्द जमती जाती है
सोचता हूँ कि उस की याद आख़िर
अब किसे रात भर जगाती है
मैं भी इज़्न-ए-नवा-गरी चाहूँ
बे-दिली भी तो लब हिलाती है
सो गए पेड़ जाग उठी ख़ुश्बू
ज़िंदगी ख़्वाब क्यूँ दिखाती है
उस सरापा वफ़ा की फ़ुर्क़त में
ख़्वाहिश-ए-ग़ैर क्यूँ सताती है
आप अपने से हम-सुख़न रहना
हम-नशीं साँस फूल जाती है
क्या सितम है कि अब तिरी सूरत
ग़ौर करने पे याद आती है
कौन इस घर की देख-भाल करे
रोज़ इक चीज़ टूट जाती है
आख़िरी बार आह कर ली है
आख़िरी बार आह कर ली है
मैं ने ख़ुद से निबाह कर ली है
अपने सर इक बला तो लेनी थी
मैं ने वो ज़ुल्फ़ अपने सर ली है
दिन भला किस तरह गुज़ारोगे
वस्ल की शब भी अब गुज़र ली है
जाँ-निसारों पे वार क्या करना
मैं ने बस हाथ में सिपर ली है
जो भी माँगो उधार दूँगा मैं
उस गली में दुकान कर ली है
मेरा कश्कोल कब से ख़ाली था
मैं ने इस में शराब भर ली है
और तो कुछ नहीं किया मैं ने
अपनी हालत तबाह कर ली है
शैख़ आया था मोहतसिब को लिए
मैं ने भी उन की वो ख़बर ली है
तुम्हारा हिज्र मना लूँ अगर इजाज़त हो
तुम्हारा हिज्र मना लूँ अगर इजाज़त हो
मैं दिल किसी से लगा लूँ अगर इजाज़त हो
तुम्हारे बा'द भला क्या हैं वअदा-ओ-पैमाँ
बस अपना वक़्त गँवा लूँ अगर इजाज़त हो
तुम्हारे हिज्र की शब-हा-ए-कार में जानाँ
कोई चराग़ जला लूँ अगर इजाज़त हो
जुनूँ वही है वही मैं मगर है शहर नया
यहाँ भी शोर मचा लूँ अगर इजाज़त हो
किसे है ख़्वाहिश-ए-मरहम-गरी मगर फिर भी
मैं अपने ज़ख़्म दिखा लूँ अगर इजाज़त हो
तुम्हारी याद में जीने की आरज़ू है अभी
कुछ अपना हाल सँभालूँ अगर इजाज़त हो
अपना ख़ाका लगता हूँ
अपना ख़ाका लगता हूँ
एक तमाशा लगता हूँ
आईनों को ज़ंग लगा
अब मैं कैसा लगता हूँ
अब मैं कोई शख़्स नहीं
उस का साया लगता हूँ
सारे रिश्ते तिश्ना हैं
क्या मैं दरिया लगता हूँ
उस से गले मिल कर ख़ुद को
तन्हा तन्हा लगता हूँ
ख़ुद को मैं सब आँखों में
धुँदला धुँदला लगता हूँ
मैं हर लम्हा इस घर से
जाने वाला लगता हूँ
क्या हुए वो सब लोग कि मैं
सूना सूना लगता हूँ
मस्लहत इस में क्या है मेरी
टूटा फूटा लगता हूँ
क्या तुम को इस हाल में भी
मैं दुनिया का लगता हूँ
कब का रोगी हूँ वैसे
शहर-ए-मसीहा लगता हूँ
मेरा तालू तर कर दो
सच-मुच प्यासा लगता हूँ
मुझ से कमा लो कुछ पैसे
ज़िंदा मुर्दा लगता हूँ
मैं ने सहे हैं मक्र अपने
अब बेचारा लगता हूँ
सीना दहक रहा हो तो क्या चुप रहे कोई
सीना दहक रहा हो तो क्या चुप रहे कोई
क्यूँ चीख़ चीख़ कर न गला छील ले कोई
साबित हुआ सुकून-ए-दिल-ओ-जाँ कहीं नहीं
रिश्तों में ढूँढता है तो ढूँडा करे कोई
तर्क-ए-तअल्लुक़ात कोई मसअला नहीं
ये तो वो रास्ता है कि बस चल पड़े कोई
दीवार जानता था जिसे मैं वो धूल थी
अब मुझ को ए'तिमाद की दावत न दे कोई
मैं ख़ुद ये चाहता हूँ कि हालात हूँ ख़राब
मेरे ख़िलाफ़ ज़हर उगलता फिरे कोई
ऐ शख़्स अब तो मुझ को सभी कुछ क़ुबूल है
ये भी क़ुबूल है कि तुझे छीन ले कोई
हाँ ठीक है मैं अपनी अना का मरीज़ हूँ
आख़िर मिरे मिज़ाज में क्यूँ दख़्ल दे कोई
इक शख़्स कर रहा है अभी तक वफ़ा का ज़िक्र
काश उस ज़बाँ-दराज़ का मुँह नोच ले कोई
अब वो घर इक वीराना था बस वीराना ज़िंदा था
अब वो घर इक वीराना था बस वीराना ज़िंदा था
सब आँखें दम तोड़ चुकी थीं और मैं तन्हा ज़िंदा था
सारी गली सुनसान पड़ी थी बाद-ए-फ़ना के पहरे में
हिज्र के दालान और आँगन में बस इक साया ज़िंदा था
वो जो कबूतर उस मूखे में रहते थे किस देस उड़े
एक का नाम नवाज़िंदा था और इक का बाज़िंदा था
वो दोपहर अपनी रुख़्सत की ऐसा-वैसा धोका थी
अपने अंदर अपनी लाश उठाए मैं झूटा ज़िंदा था
थीं वो घर रातें भी कहानी वा'दे और फिर दिन गिनना
आना था जाने वाले को जाने वाला ज़िंदा था
दस्तक देने वाले भी थे दस्तक सुनने वाले भी
था आबाद मोहल्ला सारा हर दरवाज़ा ज़िंदा था
पीले पत्तों को सह-पहर की वहशत पुर्सा देती थी
आँगन में इक औंधे घड़े पर बस इक कव्वा ज़िंदा था
बड़ा एहसान हम फ़रमा रहे हैं
बड़ा एहसान हम फ़रमा रहे हैं
कि उन के ख़त उन्हें लौटा रहे हैं
नहीं तर्क-ए-मोहब्बत पर वो राज़ी
क़यामत है कि हम समझा रहे हैं
यक़ीं का रास्ता तय करने वाले
बहुत तेज़ी से वापस आ रहे हैं
ये मत भूलो कि ये लम्हात हम को
बिछड़ने के लिए मिलवा रहे हैं
तअ'ज्जुब है कि इश्क़-ओ-आशिक़ी से
अभी कुछ लोग धोका खा रहे हैं
तुम्हें चाहेंगे जब छिन जाओगी तुम
अभी हम तुम को अर्ज़ां पा रहे हैं
किसी सूरत उन्हें नफ़रत हो हम से
हम अपने ऐब ख़ुद गिनवा रहे हैं
वो पागल मस्त है अपनी वफ़ा में
मिरी आँखों में आँसू आ रहे हैं
दलीलों से उसे क़ाइल किया था
दलीलें दे के अब पछता रहे हैं
तिरी बाँहों से हिजरत करने वाले
नए माहौल में घबरा रहे हैं
ये जज़्ब-ए-इश्क़ है या जज़्बा-ए-रहम
तिरे आँसू मुझे रुलवा रहे हैं
अजब कुछ रब्त है तुम से कि तुम को
हम अपना जान कर ठुकरा रहे हैं
वफ़ा की यादगारें तक न होंगी
मिरी जाँ बस कोई दिन जा रहे हैं