साहिर लुधियानवी
साहिर का एक उर्दू
का शब्द है जिसका मतलब हिन्दी में होता है जादूगर, और साहिर ने अपने नाम की तरह
जादूगरी भी की शब्दों का ऐसा माया जाल रचा उन्होने
जो आज तक लोग सुलझा रहे हैं और आने वाली कई पीढ़ियाँ सुलझती रहेंगी. जज़्बातों से भरी हुई उनकी शायरी उनके गीत आज भी वैसा असर करते हैं जो उस वक़्त किया करते थे। जब वो पहली बार सुने या पढे गए थे लगभग 30 सालों तक साहिर ने अपनी कलम से कागज़ पर ये जादू बिखेरा.
जादूगरी भी की शब्दों का ऐसा माया जाल रचा उन्होने
जो आज तक लोग सुलझा रहे हैं और आने वाली कई पीढ़ियाँ सुलझती रहेंगी. जज़्बातों से भरी हुई उनकी शायरी उनके गीत आज भी वैसा असर करते हैं जो उस वक़्त किया करते थे। जब वो पहली बार सुने या पढे गए थे लगभग 30 सालों तक साहिर ने अपनी कलम से कागज़ पर ये जादू बिखेरा.
साहिर लुधियानवी का बचपन
साहिर का जन्म पंजाब
के लुधियाना मे 8 मार्च 1921 के दिन हुआ था, उनका जन्म जिस परिवार में हुआ वो परिवार इलाके का ज़मीनदार परिवार था।
उनके पिता का नाम फ़ज़ल मूहोम्मद था कहतें हैं की, साहिर के
पिता ने 12 महिलाओं के साथ निकाह किया था साहिर उनकी 11 बीवी बेगम सरदार से हुए थे, वो इतने बड़े खानदान के अकेले वारिस थे. यानि और किसी बीवी से मूहोम्मद
फ़ज़ल को कोई औलाद नहीं थी। खैर नन्हें से इस बच्चे का नाम रखा गया अब्दुल हयी कहते
हैं, इनके नाम के पीछे भी एक अजीब सि कहानी है वो कुछ इस तरह
है उस ज़माने मे मूहोम्मद फ़ज़ल के पड़ौस में एक शक्स रहा करता था। जिसका नाम अब्दुल
हयी था, जिससे मुहहोम्मद फ़ज़ल की अनबन रहती थी मगर वो काफी
रसुखदार था तो मूहोम्मद फ़ज़ल सीधे तौर पर उस से कुछ नहीं कह पाते थे. जब उनके घर
लड़के का जन्म हुआ तो उन्होने उसका नाम अब्दुल हयी रख दिया,
और वो उसको खूब बुरा भला कहता जब अब्दुल हयी कुछ कहता तो वो कहता वो अपने लड़के को
कह रहा है उसको नहीं. और इस तरह से वो अपने मन की भड़ास निकाला करता इस तरह अजीब से
हालात में साहिर का बचपन बीत रहा था, साहिर का जन्म वैसे तो
ज़मीनदार परिवार में हुआ बहुत संपत्तियाँ थीं मगर उनके पिता की ग़लत हरकतों की वजह
से सब कुछ धीरे धीरे बर्बाद हो गया। दिन ब दिन उनकी ग़लत आदतों में बढ़ोतरी ही होती
चली गई आखिरकार तंग आकर उनकी माँ बेग़म सरदार ने उनका घर छोड दिया. और अपने भाई के
पास रहने चली गईं बात यहाँ तक बिगड़ गई की उन्होने तलाक़ ले लिया और साहिर को अदालत
ने उनकी माँ को सौंप दिया ताकि उनके उनकी परवरिश सही तरीके से हो माँ के देख रेख
में.
साहिर की शुरुवाती
पढ़ाई लिखाई लुधियाना के खालसा हाई स्कूल से हुई और फिर आगे की पढ़ाई लुधियाना के ही
चंदर धवन शासकीय कॉलेज से हुई। उनकी माँ चाहती थीं की साहिर बड़े होकर डॉक्टर या जज
बने और वो इसके लिए बहुत कोशिश किया करती थीं की, साहिर अपनी पढ़ाई उसी दिशा में करें मगर फिर अब्दुल हयी को तो
बनाना था साहिर लुधियानवी औरउसके लिए वो अपनी ही राह पर चल रहे थे। वो अपनी माँ से
बहुत प्यार करते थे वो उनकी बहुत इज्ज़त किया करते और उनकी हर बात मानते थे.
उन्हे बचपन से ही
शायरी का शौक था और उन्हे दशहरे के मेलों में होने वाले नाटक बहुत पसंद थे, नन्ही सी उम्र में उन्हे उस इलाके के एक
शायर मास्टर रहमत की लिखे एक एक शेर ज़ुबानी याद थे उन्हे किताबें पढ़ना बहुत पसंद
था। वो शायरी के अलावा भी अलग अलग विषयों की किताबें पढ़ा करते थे उनकी याददाश्त
बहुत अच्छी थी वो एक बार जो पढ़ या सून लेते वो उनको याद हो जाया करती थी. दूसरों
की शायरी पढ़ते पढ़ते उन्हे भी शायरी लिखने का शौक जागा और वो भी शायरी करने लगे उनदिनों
वो खालसा स्कूल में पढ़ा करते थे. वहाँ उनके उस्ताद थे फ़ैयाज़ हिरयानवी शायरी के लिए
साहिर उनको अपना उस्ताद मानते थे, उन्होने ही साहिर को उर्दू
और शायरी की तालिम दी.
अब्दुल हयी का साहिर लुधियानवी बनना
अब्दुल हयी के साहिर लुधियानवी बनाने का भी एक बहुत ही दिलचस्प किस्सा है और वो कुछ यूं है की, सन 1937 में जब वो अपनी मैट्रिक की पढ़ाई कर रहे थे। तब उन्होने अपनी किताब में मशहूर शायर अल्लामा इकबाल की एक नज़्म पढ़ी जो दाग़ दहेलवी की तारीफ में अल्लामा इकबाल ने लिखी थी. वो नज़्म ये थी की-
चल बसा दाग, अहा! मय्यत उसकी जेब-ए-दोष है
आखिरी शायर जहानाबाद का खामोश है
इस चमन में होंगे
पैदा बुलबुल-ए-शीरीज भी
सैकडों साहिर भी
होगें, सहीने इजाज भी
ये नज़्म साहिर को बहुत पसंद आई और इस नज़्म में साहिर लब्ज़
उनके दिमाग़ में घर कर गया जो की उर्दू का एक शब्द है इस शब्द का मतलब होता है जादूगर, अब्दुल ने अपने नाम को बादल कर साहिर कर लिया और अपने शहर का
नाम साथ में जोड़ दिया । इस तरह वो अब्दुल हयी से बन गए साहिर लुधियानवी.
साहिर लुधियानवी और अमृता प्रीतम की कहानी
इश्क़ का रंग वो रंग है जो सदियों से एक सा है न ये गहरा हुआ
है न ही हल्का हुआ. एक हल्की हल्की सी चुभन हर किसी के दिल में कहीं न कहीं होती
है बस ज़रूरत है दिल के किसी खास नस पर उंगली रखने की, कहते हैं इश्क़ वो ही सच्चा हुआ करता है जो मुकम्मल न हो सके
या दूसरे तरीके से समझे तो वो ही पहुँच पाता है। इश्क़ की मंज़िल में जो राह में ही
गुम हो जाए बात समझनी ज़रा सी मुश्किल है, और ये बात वही समझ
सकता है इसने कभी खुद के वजूद को मिटा कर किसी को चाहा हो.
इसी तरह के अजीब सी राहों से गुज़रा साहिर और अमृता का इश्क़।
जो किसी मंज़िल तक कभी पहुँच ही न सका भले ही आज साहिर और अमृता इस दुनियाँ में
नहीं है मगर उनका इश्क़ का सफर आज भी जारी है. यानि उन्होने जो इश्क़ किया वो उन्हे
आज भी ज़िंदा रखे हुए हैं और आने वाली कई पीढ़ियों के मुसाफिरों को वो राह दिखाया करेंगी
की, किस राह से चल कर मंज़िल मिलेगी और किस राह
में चल कर वो फना हो जायेंगे.
इश्क़ के ये दो राही
मिले थे लाहौर और दिल्ली के बीच एक जगह जिसका ना इतेफ़ाक़ से प्रीतनगर था. सन 1944
में जब साहिर का नाम शायरी के आसमान में हल्का हल्का मशहूर हो रहा था, तब वो वहाँ गए थे किसी मुशायरे के लिए जहां उनकी मुलाक़ात हुई
अमृता प्रीतम से। एक छोटे से कमरे में कुछ शायर और उनमे ये दोनों रोशनी कम थी तो
इतनी की एक दूसरे के चेहरे बस समझ आ रहे थे, दोनों की आँखें
एक दूसरे तक बार बार आकर लौटने लगीं बस ये हल्की सी रौशनी ने हल्की सी चिंगारी का
काम किया वहाँ। और दोनों के दिलों में एक शम्मा जल उठी इस शम्मा की दहक में अमृता
ये भी भूल गईं की वो पहले से शादी शुदा हैं, उनकी शादी बचपने
में ही तय कर दी गई थी और उनके शौहर का नाम था प्रीतम सिंह। मगर कुछ वजहों से अमृता
अपनी शादी से खुश नहीं थीं.
अब एक मसला ये था की अमृता रहतीं थीं दिल्ली में और साहिर
रहा करते थे लाहौर में, तो मुलाक़ात तो मुश्किल ही हुआ करती थी उन
दिनों बस एक ज़रिया था ख़त जिसके ज़रिये ये दोनों एक दूसरे से बातें किया करते थे. और
अपने एहसास को एक दूसरे तक पहुंचा सकते थे काम ये ज़रा मुश्किल था मगर इश्क़ फिर
इश्क़ है कहाँ वो दूरियों की और पैरों की बेड़ियों की परवाह किया करता है.
अमृता प्रीतम के खतों से पता चलता है की वो साहिर के इश्क़
में दीवानगी की हद पार कर चुकीं थीं, वो
उन्हे प्यार से मेरा शायर,मेरा महबूब,
मेरा देवता और मेरा ख़ुदा कहा करतीं थीं। अपनी लिखी किताब रसीदी टिकट में अमृता
लिखतीं है की 'जब हम मिलते थे, तो
जुबां खामोश रहती थी.
नैन बोलते थे दोनो एक दूसरे को बस एक टक देखा करते थे, इस मुलाक़ात के तमाम वक़्त साहिर सिगरेट पिया करते एक के बाद के
लगातार और जब वो चले जाते तब अमृता वो सिगरेट के बचे हुए बुझे टुकड़ों को अपने
होंठों से लगा लिया करतीं थीं. अमृता इस कदर उनके प्यार में पागल हो गईं की वो
अपने पति से अलग होने के लिए भी राज़ी हो गईं और फिर कुछ अरसे बाद वो अपने पति से
तलाक लेकर अलग भी हो गईं और दिल्ली में रहने लगी। अकेले और अपने लिखने के शौक और
साहिर के प्यार के सहारे ज़िंदगी जीने लगीं ऐसा नहीं था की,
साहिर अमृता से कम प्यार करते थे उन्होने कई ग़ज़लें नज़्में गीत अमृता के लिए लिखीं
मगर साहिर ने कभी खुले तौर पर अमृता को अपनाने की कोशिश की न ही कोई पहल की. इसकी
एक वजह शायद उस वक़्त के एक पेंटर इमरोज़ भी थे जो की अमृता के बहुत पुराने दोस्त थे, वो सन 1964 में मुंबई साहिर से मिलने इमरोज़ के साथ गई थीं किसी और मर्द
के साथ अमृता को साहिर नहीं देख सके उन्हे ये बर्दाश्त नहीं हुआ।
इसी दरमायान ये रिश्ता टूटने के कगार पर आ गया जब सहीर का
दिल एक बार फिर किसी पर आ गया, और इस बार आया
गायिका सुधा मल्होत्रा पर मगर ये प्यार एक तरफा रहा.
साहिर के करीबी दोस्त ये किस्सा सुनते हैं की, एक बार वो किसी काम के सिलसिले में वो साहिर से मिलने के लिए
उनके घर गए वहाँ बात चित के दरमायान उनकी नज़र एक कप पर पड़ी,
वो बहुत गंदा सा धूल में साना हुआ एक कप था तो वो अचानक उठे और उस कप की तरफ बढ़ते
हुए कहने लगे की क्या है साहिर कितना गंदा सा कप तुमने रखा हुआ है। चलो तुम नहीं
करते तो मैं आज इसको साफ कर देता हूँ, इतने में साहिर झट से
उठे और कप और उनके बीच आ गए और कहा खबरदार इस कप को हाथ न लगाना ये वो कप है जिससे
कभी अमृता ने चाय पी थी.
साहिर की तल्खियाँ
साहिर का एक दीवान (काव्य संग्रह) तल्खियाँ प्रकाशित हुआ जो बहुत मशहूर हुआ। साहिर की ज़िंदगी में 25 बार छपी गई जिनमे 14 बार हिन्दी में और बाकी बार कई ज़बानों में जैसे रूसी अंग्रेज़ी भाषाओं में। पाकिस्तान में आज भी ये आलम है की जब भी कोई प्रकाशक पाकिस्तान में प्रकाशन शुरू करता है अपने यहाँ तो वो पहली किताब तल्खियाँ ही छापता है. खैर शायरी तो शायरी है उस से कहाँ पेट की आज बुझाई जा सकती है। और उनपर उनकी माँ की ज़िम्मेदारी भी थी तो अब उनको काम की ज़रूरत थी. जिसके लिए उन्होने एक पत्रिका जिसका नाम अदब –ए-लतीफ़ में एडिटर का काम तो मिल गया और उनके काम को भी खूब सराहा गया, मगर तंख्वाह इतनी नहीं थी जितनी उनकी ज़रूरत थी उन्हे वहाँ महीने के महज 40 रूपए मिला करते थे। उसी से उन्हे पूरा महिना चलना पड़ता था.
साहिर की सचिन देव बर्मन से मुलाक़ात
साहिर ने बहुत दुख देखे यहाँ तक की गुज़र बसर के लिए उनकी
माँ को चूड़ियाँ भी बेचनी पड़ीं, मगर साहिर ने
कभी हिम्मत नहीं हारी मुल्क का बटवारा हुआ। सब तहस नहस हुआ और उन्होने पाकिस्तान
के बदले अपना मुल्क भारत को चुना. कई परेशानियाँ उन्होने झेलीं खैर अब उनके दुखों
का अंत होने ही वाला था. सचिन देव बर्मन ने कई नए नए कलाकारों को अपनी फिल्मों में
मौका दिया था, वो हमेशा नए फनकारों की तलाश में रहते थे ये
बात साहिर को भी पता थी। तो इस बार सचिन देव बर्मन तलाश में थे नए गीतकार की, जैसे ही साहिर को इस बात का पता चला वो उनसे मिलने चले गए मगर वो जिस
होटल में ठहरे हुए थे। उसके दरवाजे पर डू नौट डिस्टर्ब का टैग लगा हुआ था, साहिर ने उसको अनदेखा कर दिया और दस्तक देते हुए कमरे के अंदर दाखिल हो
गए पहले तो उनकी इस गुस्ताख़ी पर बर्मन साहब को बहुत गुस्सा आया, मगर उन्होने उनकी बात सुनी और उन्हे एक धून सुनाई और कहा चलो इसपर कोई
गीत लिख के दिखाओ. तुरंत साहिर ने लिख दिया। ठंडी हवाएँ लहरा के आए गीत का मुखड़ा
सुनते ही बर्मन साहब खड़े हुए और साहिर को गले लगा लिया और कहा की अब तुम ही मेरी
फिल्मों में गाने लिखोगे, बाद में इस गाने को लता मंगेशकर ने
अपनी आवाज़ दी नौजवान फिल्म के लिए सन 1951 में फिर सन 1951 से 1957 तक इस जोड़ी ने
करीब 15 फिल्मों में कई यादगार गाने दिये.
कहा जाता है की साहिर इतने लोकप्रिय थे की, वो उस वक़्त लता मंगेशकर से भी ज़्यादा पैसे लिया करते थे गाने
लिखने के. इस बात से खफा होकर लता ने उनके लिखे गाने गाने से माना कर दिया था।
उन्होने नौशाद ,ख्ययाम के साथ भी बहुत काम किया 1959 में
बर्मन साहब के साथ जोड़ी टूटने के बाद बी. आर चोपड़ा की सारी फिल्मों में उन्होने ही
गाने लिखे, 1956 में ये जोड़ी बनी थी फिल्म नया दौर के बनने
के वक़्त से. एक किस्सा ये है की, एक बार बी.आर चोपड़ा के छोटे
भाई यश चोपड़ा मुंबई घूमने आए उन्होने किसी अभिनेत्री या अभिनेता से मिलने की बजाए
साहिर से मिलने का इज़हार किया अपने बड़े भाई से. जब यश चोपड़ा ने अपनी फिल्म दाग
बनाई तो, उसमें उन्होने साहिर से गाने लिखवाये मगर साहिर ने
उनसे पैसे लेने से माना कर दिया. बी.आर चोपड़ा की ज़िद की वजह से लता ने फिर साहिर
के लिखे गाने गाने के लिए हामी भरी. साहिर की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से भी
लगाया जा सकता है की, साहिर का नाम रेडियो में प्रसारित होने
वाले फरमाइशी गानो में बतौर फरमाइश लिया जाता था। साहिर ने ही गानों की रॉयल्टी
गीतकारों को .
फ़िल्म फ़ेयर अवार्ड उन्हे दो बार मिला पहली बार मिला 1964
में फ़िल्म ताजमहल के लिए, और दूसरी बार 1976 कभी कभी फ़िल्म के गानो
के लिए. सन 1971 में उन्हे भारत सरकार द्वारा पद्मश्री से भी नवाजा गया.
साहिर का दुनियाँ से जाना
सन 1976 में उनकी जान से प्यारी अम्मी का इंतेकाल हो गया, वो इस दर्द से टूट गए अभी ज़रा सा संभले ही थे की, उनके बहुत करीबी दोस्त जाँ निसार अख्तर का भी साथ छुट गया। जैसे तैसे
उन्होने खुद को संभाला मगर अब वो किसी से मिलते नहीं थे न ही कुछ लिखते थे।
उन्होने एक बार यश चोपड़ा से कहा था की अब लिखने में मज़ा नहीं आता, इसी बीच उन्हे दिल का दौरा पड़ा और 25 अक्तूबर 1980 के दिन ये एक महान
शायर अपनी गीतों और अपनी कहानियों को छोड कर चला गया.
साहिर के लिखे कुछ मशहूर गीत जिनमे आज भी वही ताज़गी है जो
उस वक़्त थी जब वो लिखे और गाये गए थे-
1.
जाने वो कैसे लोग थे जिनके प्यार
को प्यार मिला
2.
ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी वो बरसात
की रात
3.
मेरे दिल मे आज क्या है तू कहे
तो मैं बता दूँ
4.
जब भी जी चाहे नई दुनियाँ बसा
लेते हैं लोग
5.
ग़ैरों पे करम अपनों पे सितम
6.
तुम अगगर साथ देने का वादा करो
7.
हम इंतज़ार करेंगे तेरा क़यामत तक
खुदा करे
8.
मैंने शायद तुम्हें पहले भी कहीं
देखा है
9.
रंग और नूर की बारात किसे पेश
करूँ
10. किसी पत्थर की मूरत से इबादत का इरादा है
11. मैं हर एक पल का
शायर हूँ
12. साथी हाथ बढ़ाना
13. बाबुल की दुआएं लेती जा
14. चलो एक बार फिर से अजनबी बन जाएँ हम दोनों
very good
ReplyDelete