Biography of Amir Khusaro हज़रत अमीर खुसरो (अब्दुल हसन यमीनूद्दीन मूहोम्मद)



अमीर खुसरो




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अमीर खुसरो के हिन्दवी कलाम की एकमात्र पांडुलिपि


जर्मनी (बर्लिन) के संग्रहालय स्टाट्स बिब्लिओथिक में रखी है।


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हज़रत अमीर खुसरो



अब्दुल हसन यमीनूद्दीन मूहोम्मद ये पूरा नाम था हज़रत अमीर खुसरो का, इनकी पैदाइश सन 1253 ईसवी में एटा ज़िले में उत्तर प्रदेश के पटियाली में हुई, उनके वालिद का नाम अमीर मोहम्मद सैफुद्दीन। 13 वीं ईसवी के शुरुवाती दिनों में अमीरमूहोम्मद सैफुद्दीन तुर्किस्तान में लाचीन कबीले के सरदार हुआ करते थे. ये वो दौर था जब चंगेज़ ख़ानअपनी सरहदें मंगोल से निकाल कर आगे बढ़ा रहा था वो इस कदर ज़ालिम था के उसके आने की ख़बर सुनते ही लोग अपने घर बार छोड़ का भाग जया करते थे उस वक़्त दिल्ली के तख़्त पर शमशुद्दीन अलतमश तख़्तनशीं था चंगेज़ ख़ान से बचने के लिए अमीर मोहम्मद सैफुद्दीन अपने काबलिए वालों के साथ लाहौर से होते हुए दिल्ली (देहली) आ गए. खुशकिस्मती से उनकी पहुँच शमशुद्दीन अलतमश के दरबार तक हो गई। अपने फौजी हुनर की बदौलत वो दरबार में फ़ौजियों के सरदार बना दीये गए. शमशुद्दीन अलतमश के बाद बहुत ही नेक और अमनपसंद बादशाह नसीरुद्दीन महमूद के यहाँ इनको नौकरी करने का मौका मिला। फिर उस दौर के बहुत ही मशहूर बादशाह बलबन ने उन्हे आमिर का ओहदा दिया और ज़िला पटियाली में एटा के पास जागीरदारी भी दी.

दिल्ली के एक राइस आमिर एमादूल्मुल्क जो बलबन के दरबार में एक खास ओहदे पर थे अपनी किसी मजबूरी की वजह से इन्होंने इस्लाम कुबलू कर लिया था. इस्लाम कुबूल करने के बावजूद भी इनके घर के सारे रिवाज हिंदुओं के थे, इन्ही की लड़की से अमीर खुसरो की शादी हुई। खुसरो का बचपन हिन्दू और मुस्लिम तहज़ीबों के बीच बिता उनके ज़ेहन पर इसकी छाप ज़िंदगी भर देखी गयी खुसरो जब पैदा हुए तो उन्हे उनके वालिद कपड़े में लपेट कर एक सूफी के पास लेकर , उन्होने सैफुद्दीन के हाथ से खुसरो को आपने हाथ में लेकर कहा "आवरदी कसे राके दो कदम। अज़ खाकानी पेश ख्वाहिद बूद।" जिसका मतलब है तुम मेरे पास ऐसे बच्चे कू लेकर आए हो की जिसका नाम दुनियाँ में तब तक रहेगा जब तक दुनियाँ रहेगी और इसका मुस्तकबिल बहुत बुलंद होगा और किस्मत इसके क़दम चूम कर खुद पर इतरायगी। अमीर खुसरो 3 भाई थे तीनों भाइयों में अमीर खुसरो सबसे ज़्यादा तेज़ थे अपनी एक किताब गुर्रतल कमाल में अमीर खुसरो ने ज़िक्र किया है की उनके वालिद मोहम्मद सैफुद्दीन “उम्मी” यानी अनपढ़ थे, मगर उन्होने अमीर खुसरो की तालिम का बहुत ही अच्छा इंतजाम किया उनकी शुरुवाती तरबियत मदरसे में हुई. खुसरो कहते हैं की जब उन्होने होश संभाला तो खुद को मदरसे में उनदिनों लिखावट पर काफी ज़ोर दिया जाता था जिसके लिए वो क़ाज़ी असदुद्दीन मूहोम्मद के पास जया करते थे अमीर खुसरो की लिखावट बहुत ही खूबसूरत थी, अमीर खुसरो को शायरी का शौक बचपने से लग गया था कहा जाता है की उन्होने अपना पहला दीवान 9 साल की उम्र मे ही लिख लिया था, उनके नाना को पान खाने का शौक था और उनके ननिहाल में नाच गाने का चलन था जो की मुस्लिम घरानो में नहीं हुआ करता दो तरह के खानदानों का नन्हें खुसरो के दिमाग पर गहरा असर हुआ वो जहां फारसी में कलाम करते वहीं वो फारसी के कलाम में हिन्दी की खड़ी बोली का भी इस्तमाल भी खूब किया करते। खुसरो ने अपने एक फ़ारसी दीवान तुहफतुसिग्र में कहा की उनके उस्ताद क़ाज़ी असदुद्दीन मूहोम्मद ने उमने अदब और शायरी के बेपनाह शौक और उनकी सलाहियत को देखते हुए उन्हे अपने साथ नायाब कोतवाल के पास ले गए. वहाँ एक और जाने माने और मशहूर अदीब ख़वाजा इज्जुद्दीन (अज़ीज़) बैठे हुए थे। क़ाज़ी असदुद्दीन मूहोम्मद ने उनसे खुसरो का इम्तेहान लेने को कहा। तब ख्वाजा साहब ने कहा ख्वाजा साहब ने तब अमीर खुसरो से कहा कि 'मू' (बाल, 'बैज,अंडा,'तीर' और 'खरपुजा') (खरबूजा- इन चार बेजोड़, बेमेल और बेतरतीब चीज़ों को एक अशआर में इस्तमाल करो। खुसरो ने फौरन इनसब से फ़ारसी का एक कलाम कह दिया.

'हर मूये कि दर दो जुल्फ़ आँ सनम अस्त,

सद बैज-ए-अम्बरी बर आँ मूये जम अस्त,

चूँ तीर मदाँ रास्त दिलशरा जीरा,

चूँ खरपुजा ददांश मियाने शिकम् अस्त।'




यानि उस महबूबा के बालों में जो तार हैं उनमें से हर एक तार में अम्बर मछली जैसी सुगन्ध वाले सौ-सौ अंडे पिरोए हुए हैं। उस सुन्दरी के हृदय को तीर जैसा सीधा-सादा मत समझो व जानो क्योंकि उसके भीतर खरबूजे जैसे चुभनेवाले दाँत भी मौजूद हैं।

इसका मतलब है :- उस महबूब के बालों में जो तार है उनमे से हर एक तार में आसमान मछ्ली जैसी खुशबू वाले सौ- सौ अंडे पिरोए हुए है। उस खूबसूरत के दिल को तीर जैसा सीधा साधा म्मत समझो जानो क्योंकि उसके अंदर खरबूज़ जैसे चुभने वाले दाँत भी मौजद हैं.

ख़्वाजा साहब को उम्मीद न थी की कोई इन बेतरतीब से हर्फों से कोई किसी तरह का कलाम भी कह सकता है मगर खुसरो का कलाम सून का ख़्वाजा साहब चौंक गए और उन्होने आगे बढ़ के खुसरो को गले से लगा लिया और कहा अदब की दुनियाँ में तुम्हारा नाम “सुल्तानी” होना चाहिए। यही वजह है की खुसरो के 'तोहफतुसिग्र' दीवान मे अक्सर जगह पर यही नाम उन्होने इस्तमाल किया है , खुसरो का मन कभी भी पढ़ाई लिखाई में नहीं लगा वो हमेशा शेर-ओ – शायरी में डूबे रहते वो बहुत खुशदिल थे उन्हे तनहानियाँ पसंद थी, वो कभी वो नहीं करना चाहते थे जो आम लोग किया करते हैं वो कुछ खास की तलाश में रहते और उनके साथ ऐसा हुआ भी।

खुसरो के नाना एमादूल्मुल्क और उनके वालिद जनाब मोहम्मद सैफुद्दीन चिश्तीया घराने के मशहूर और बहुत पहुंचे हुए फकीर “हज़रत निजामुद्दीन औलिया उर्फ़े सुल्तानुल मशायख” के मुरीद थे। दोनों खुसरो और उनके भाइयों के लेकर उनके ख़ानक़ाह में पहुंचे , उस वक़्त खुसरो की उम्र महज़ 7 साल की थी खुसरो को पता चल गया की वो उन्हे वहाँ मुरीद कराने के लिए ले कर आए हैं। खुसरो ने अपने वालिद से कहा की अभी मेरा इरादा मुरीद होने का नहीं है इसलिए मैं ख़ानक़ाह के अंदर नहीं जाऊंगा आप ही अंदर जाइए, नन्हा खुसरो ये सोच रह था की अगर हज़रत निज़्जमुद्दीन इतने बड़े सूफी हैं तो मैं खूद ही मुरीद हो जाऊंगा. जब उनके वालिद ख़ानक़ाह के अंदर दाखील हो गए तब बैठे बैठे बाहर ही उन्होने एक शेर कहा की अगर वो दिल की बात समझ जाते हैं तो वो मेरे दिल की बात भी समझ जायेंगे और मेरे शेर का जवाब शेर से देंगे तभी मैं अंदर जाऊंगा और मुरीद हो जाऊंगा। उन्होने कहा-




'तु आँ शाहे कि बर ऐवाने कसरत,

कबूतर गर नशीनद बाज गरदद।

गुरीबे मुस्तमंदे बर-दर आमद,

बयायद अंदर्रूँ या बाज़ गरदद।।'




मतलब :- तू वो शहंशाहों का शहँशाह है की तेरे पास कबूतर भी बैठे तो वो तेरी इनायत से बाज बन जाए॥ खुसरो अभी मन में ये सोच ही रहे थे की अंदर से एक खादिम आए और उन्होने ये शेर पढ़ा.




'बयायद अंद र्रूँ मरदे हकीकत,

कि बामा यकनफस हमराज गरदद।

अगर अबलह बुअद आँ मरदे - नादाँ।

अजाँ राहे कि आमद बाज गरदद।।'




मतलब :- ए हक़ (ख़ुदा) की तलाश करने वाले, अंदर चले आओ और मेरे साथ तुम भी उस (ख़ुदा) की तलाश करो। और गर आने वाला अंजान है तो जिस रास्ते से आया है वो वापस उसी रास्ते से चला जाए. जैसे ही खुसरो ने ये सुना वो रोने लगे और बदहवास होकर अंदर गए और निज़ामुद्दीन औलिया के कदमों पर सर रख कर बेसाख्ता रोने लगे, और तुरंत ही वो मुरीद हो गए। ये किस्सा हसन सानी निजामी ने अपनी किताब “तजकि-दह-ए-खुसरवी” में लिखी है. जब खुसरो अपने घर पहुंचे तो तो वो जैसे मदहोशी के आलम में थे वो अपनी माँ के सामने झूम झूम के गुनगुना रहे थे।आज क़व्वाली और बहुत से भारतीय संगीत शैलियों में जो अक्सर गया जाता है वो इसी आलम का कलाम है और ये आज भी बहुत मशहूर है –







"आज रंग है ऐ माँ रंग है री, मेरे महबूब के घर रंग है री।

अरे अल्लाह तू है हर, मेरे महबूब के घर रंग है री।

मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया,

निजामुद्दीन औलिया-अलाउद्दीन औलिया।

अलाउद्दीन औलिया, फरीदुद्दीन औलिया,

फरीदुद्दीन औलिया, कुताबुद्दीन औलिया।

कुताबुद्दीन औलिया मोइनुद्दीन औलिया,

मुइनुद्दीन औलिया मुहैय्योद्दीन औलिया।

आ मुहैय्योदीन औलिया, मुहैय्योदीन औलिया।

वो तो जहाँ देखो मोरे संग है री।

अरे ऐ री सखी री, वो तो जहाँ देखो मोरो (बर) संग है री।

मोहे पीर पायो निजामुद्दीन औलिया, आहे, आहे आहे वा।

मुँह माँगे बर संग है री, वो तो मुँह माँगे बर संग है री।

निजामुद्दीन औलिया जग उजियारो, जग उजियारो जगत उजियारो।

वो तो मुँह माँगे बर संग है री। मैं पीर पायो निजामुद्दीन औलिया।

गंज शकर मोरे संग है री। मैं तो ऐसो रंग और नहीं देखयो सखी री।

मैं तो ऐसी रंग। देस-बदेस में ढूढ़ फिरी हूँ, देस-बदेस में।

आहे, आहे आहे वा, ऐ गोरा रंग मन भायो निजामुद्दीन।

मुँह माँगे बर संग है री। सजन मिलावरा इस आँगन मा।

सजन, सजन तन सजन मिलावरा। इस आँगन में उस आँगन में।

अरे इस आँगन में वो तो, उस आँगन में। अरे वो तो जहाँ देखो मोरे संग है री।

आज रंग है ए माँ रंग है री। ऐ तोरा रंग मन भायो निजामुद्दीन।

मैं तो तोरा रंग मन भायो निजामुद्दीन। मुँह माँगे बर संग है री।

मैं तो ऐसो रंग और नहीं देखी सखी री।

ऐ महबूबे इलाही मैं तो ऐसो रंग और नहीं देखी।

देस विदेश में ढूँढ़ फिरी हूँ।

आज रंग है ऐ माँ रंग है ही।

मेरे महबूब के घर रंग है री।




सन 1264 में जब मूहोम्मद सैफुद्दीन एक जंग में शहीद हुए और इस फ़ानी दुनियाँ को अलविदा कह गए तब नन्हें खुसरो की उम्र महज़ 7 साल की थी, उनके परवरिश की ज़िम्मेदारी अब नाना अमीर नवाब एमादुलमुल्क के ऊपर आ गयी नाना ने खुसरो को ऐसी तरबियत दी की वो हर मैदान में कामयाब हो सकते थे उनकी पढ़ाई लिखाई का बंदोबस्त किया गया और नाना जो खुद भी एक बहुत बहादुर फौजी थे। और उन्होने भी अपने हुनर का जौहर कई जंगों में दिखाया था, उन्होने खुसरो को जंग के सारे हुन्नर सिखाये और खुसरो एक बेहद तेज़ और सख्त फौजी बन गए. एमादुलमुल्क अक्सर खुसरो को समझाया करते थे की डरपोक और कमज़ोर सिपाही अपने वतन के ग़द्दार के जैसा होता है. यही वो दौर था जब खुसरो को बड़े बड़े बादशाहों और दानिश्वरों(बुद्धिजीवियों) की सोहबत में रहने का मौका मिला और उनके दोनों शौक शायरी और सियासत को नया आयाम मिला। खुसरो को बचपने से ही शायरी का शौक था,

जब वो जवानी की दहलीज़ पर थे तो उन्होने उस दौर के बड़े शायरों को पढ़ना शुरू किया और उनकी सोहबत से खुद को तराशते रहे। महज़ 20 साल (सन 1271) की कम उम्र में उन्होने अपना पहला दीवान लिखा “तुहफतुसिग्र” ये दीवान उस दौर के फ़ारसी के जाने माने शायरों अनवरी, खाकानी, सनाई से मुतासीर (प्रभावित) हो कर खुसरो ने लिखी.


हुदहुद और खुसरो



जल्लालुद्दीन खिलजी सन 1290 में दिल्ली की तख़्त पर तख़्तनशीं हुआ, खुसरो से खिलजी की जान पहचान पहले से ही थी खिलजी ने भी खुसरो को बहुत बड़ा ओहदा दिया अपने दरबार में और वो खुसरो को प्यार से हुदहुद कह कर पुकारा करते थे जिसका मतलब है सुरीली आवाज़ निकालने वाली चिड़िया. खिलजी ने ही खुसरो को आमिर का खिताब दिया तो बहरहाल अब अब्दुल हसन यमुनूद्दीन आमिर खुसरो के नाम से जाने जाने लगे। खुसरो ने खिलजी के शान में कई कलाम लिखे इसमें से सबसे ज़्यादा शोहरत मिली “मफ़्तहुल फतेह” इसमे खुसरो ने खिलजी के 4 जंगों का ज़िक्र किया है जब खिलजी 36 साल का था तो उसने कैसे अपने दुश्मनों का खात्मा किया उसमें ज़िक्र है कैसे उसने कैसे मलिक छजजु की बगावत को रौंदा और कैसे उसको सज़ा दी,अवध की जीत, मुग़लों को कैसे खिलजी ने हराया और छाईन की जीत का ज़िक्र किया है. खिलजी ने खुसरो को मुसहफदार (लाइब्रेरियन) और शाही कुरान शरीफ का देख रेख का जिम्मा भी दिया.

ज़ीराउद्दीन बरनी जो की उस वक़्त के इतिहास कर थे कहते हैं की खुसरो बादशाहों की महफ़िलों में जया करते थे जहां शराब के कई-कई दौर चला करते नाच गाना होता और खुसरो अपनी ग़ज़ल सुनाया करते मगर कभी भी उन्होने शराब को हाथ नहीं लगाया और वो अपनी सूफियाना फितरत में रहते और कसरत से रोजाना रात होते ही हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के ख़ानक़ाह में जाया करते थे.


तलवार और साज़ों की झंकार



इस बीच मालवा के चित्तौड़ में रन्थंबौर में बगावत की खबरें आने लगी तब उस उम्र में भी खिलजी ने खुद बगावत को कुचलने का इरादा किया उधर खुसरो को बुलाया कहा कहाँ हमारा हुदहुद खुसरो को बुलाया गया खिलजी ने कहा हम जंग करने जा रहे हैं, और चाहते हैं की तुम भी साथ चलो हमारे हम चाहते हैं तलवार और साज़ों की झंकार हमारे साथ रहे, खुसरो क्या तुम हमारे साथ चलोगे खुसरो ने कहा जनाब मैं आपके साथ ज़रूर जाऊंगा और आपके साथ साये की तरह रहूँगा और जो अपनी आँखों से देखुंगा वो लिखुंगा ताकि आने वाली दुनियाँ उसको अपनी आँखों से देखे की मैदान-ए-जंग में क्या हुआ था। और मैदान-ए-जंग में आपको ऐसा नहीं महसूस नहीं होगा की कोई शायर कलम चला रहा है वो एक खूंखार फौजी की तरह तलवार चलता नज़र आयगा। और जब तलवारों की बेसुरी आवाज़ थम जाया करेगी मैं आपको सुरों और साज़ों की सुरीली तान सुनाया करूंगा. ये सून कर खिलजी बहुत खुश हुआ और उसने कहा शाबबाश खुसरो आज से हम तुम्हें आमिर का खिताब देता है और 12000 तनगा तुम्हारी सालाना तंख्वाह मुकर्रर करते हैं।


हे लक्ष्मी सब तेरी माया है



सन 1296 ई. में अलाउद्दीन खिलजी ने तख़्त के लालच में अपने ही चाचा का क़त्ल कर दिया और दिल्ली के तख़्त पर कब्ज़ा कर लिया, उस वक़्त इतिहासकार के नाते खुद अमीर खूसरो ने इस वाक़ये का ज़िक्र कुछ यूं किया था. "अरे कुछ सुना अलाउद्दीन खिलजी सुलतान बन बैठा। सुलतान बनने से पहले इसने क्या-क्या नए करतब दिखाए। हाँ वहीं कड़ा से देहली तक सड़क के दोनों तरफ़ तोपों से दीनार और अशर्किफ़याँ बाँटता आया। लोग कहते हैं अलाउद्दीन ख़ून बरसाता हुआ उठा और ख़ून की होली खेलता हुआ तख़ते शाही तक पहुँच गया। हाँ भई, खल्के खुदा को राजा प्रजा को देखो। लोग अशर्फ़ियों के लिए दामन फैलाए लपके और ख़ून के धब्बे भूल गए। हे लक्ष्मी सब तेरी माया है।"

अमीर खुसरो और अलाउद्दीन खिलजी


अलाउद्दीन खिलजी वैसे तो रिश्ते में जलालूद्दीन का भतीजा भी और उसका दामाद भी था, मगर तख़्त के लालच में उसने अपने चाचा का ही क़त्ल कर दिया। मगर वो खुसरो के साथ बहुत अच्छा बरताव करता था, खुसरो ने उस दौर का आँखों देखा हाल अपनी किताब “खजाइनुल फतूह” सन 1295 से सन-1311 ई. तक के जंगों में फतेह का ज़िक्र किया है. इसके अलावा खुसरो ने अपनी तरफ से सनकी,ज़ालिम जिद्दी और ग़ैरमज़हबी बादशाह अलाउद्दीन को अपनी रियाया से अच्छा सलूक करने का सुझाव देते रहते थे, एक जगह खुसरो ने लिखा है की जब ख़ुदा ने तुझे शाही तख़्त दिया है तो तेरा भी फर्ज़ है की तू भी रियाया का पूरा ख़्याल रख, जिससे तू भी खुश रहे और ख़ुदा भी खुश रहे.

खुसरो का कलाम 


खुसरो के कलाम में जैसे देखने को मिलता है हिन्दी और फ़ारसी का इस्तमाल वैसे ही वो हिन्दू और मुस्लिम दोनों मज़हबों में आपसी मेल चाहते थे, उन्होने कभी किसी में कोई फर्क नहीं किया जात पात उंच नीच से वो परे रहे उम्र भर जितना उनका मुस्लिमों से रिश्ता रहा उतना ही दूसरे मज़हबों में भी रहा उनकी परवरिश भी कुछ इसी तरह की गयी थी. खुसरो ने मज़हबी बुराइयों और भेद भाव से अलग सूफी सोच का सहारा लिया ज़िंदगी को समझने के लिए, और हिन्दी में तरह तरह के बसंत, सावन, बरखा, पनघट, हिंडोला (झूला), होली, चक्की, शादी-ब्याह, विदाई, साजन, बाबुल, मंढा, ईश अराधना आदि गीत लिखे तथा दोहे, गजल, कव्वाली व तरह-तरह की पहेलियाँ लिखी।

अमीर खुसरो की शोहरत


खुसरो ने ही सितार, ढ़ोलक और तबले का आविष्कार किया, हिंदुस्तानी संगीत में तराना का भी आविष्कार खुसरो ने ही किया। खुसरो ने ईरानी संगीत और हिंदुस्तानी संगीत से मिलककर कई हज़ार रागों का आविष्कार किया जैसे जैसे - कौल, कल्बाना, साजगिरी, फरगाना, इशाक, तवाफिक, नौरोज कबीर, जिलफ, सनम-गनम, शहाना, अडाना, वगैरह ध्रपद गायकी की जगह अमीर खुसरो ने ख्याल गायन शैली का अविष्कार किया।खुसरो ने पुरानी कव्वाली और गजल को एक नया गाने का अंदाज दिया। किताबों में प्राक्कथन या प्रस्तावना लिखने का चलन भी खुसरो ने शुरु किया। अमीर खुसरो ने फारसी-हिन्दवी का प्रथम शब्द कोष 'खालिक बारी' लिखा और वो भी कविता के रुप में।


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