मीर तकी मीर
हमको शायर न कहो “मीर” के साहब हमने
दर्दो ग़म कितने किए जमा तो दीवान किया...
मीर की शुरुवाती ज़िन्दगी
मीर तक़ी 'मीर' मीर मुहम्मद तक़ी 'मीर' की पैदाइश सन 1723 ई. में आगरा में हुई , उस वक़्त दिल्ली के तख़्त पर मुग़लों का कब्जा था। मीर का बचपन अपने वालिद की देख रेख में बहुत ही नाज़ों से गुज़रा. उनकी वालिदा का कहीं कोई ज़िक्र नहीं मिलता. इस वजह से वालिद से बहुत लगाव था उन्हे उन्होने मीर की हर ख़्वाहिश का ख़्याल रखा वो मीर को बहुत प्यार और दुलार किया करते थे,
उसका ये असर हुआ की मीर की सारी ज़िंदगी में प्यार और कशिश की तलाश नज़र आती है और उनकी शायरी में भी ये नज़र आता है, सब कुछ बड़े ही इतमीनान से गुज़र रहा था, मगर खुदा की कुदरत के आगे किसी की न अब चलती है न उस वक़्त चल करती थी और आगे भी न किसी की चलेगी. जब मीर महज़ 11 साल की कमसिन उम्र में थे उनके सर से उनके वालिद का साया भी उठ गया, और नाज़ुक से मीर के कंधों पर 300 रुपयों का क़र्ज़ आ गया ख़ानदानी मिल्कियत के नाम पर बस कुछ किताबें थी जो रह गयी मीर के पास. जैसे तैसे उन्होने ये क़र्ज़ चुकाया और 6 साल तक आगरा में ही रहे फिर वो 17 साल की उम्र में वो बुझे दिल के साथ दिल्ली आ गए, बड़ी जद्दोजहद के बाद बादशाह ने उनको 1 रुपये महिना वजीफा देना मुकरर किया. फिर कुछ दिन दिल्ली में रहने के बाद वो वापस अपने शहर आगरा आ गए।
नादिर शाह का ज़माना
ज़िंदगी गुज़र नहीं कट रही थी मगर फिर उनपर एक पहाड़ टूटा सन 1739 में फ़ारस के नादिर शाह ने दिल्ली पर हमला कर दिया, और कुछ दिनों की जंग के बाद दिल्ली का तख़्तनशीन समसामुद्दौला नादिर शाह के हमले में मार गया. और बड़ी मुश्किल से मिला हुआ 1 रुपये का उनका वजीफा भी बंद हो गया, और उन्हे कुछ दिनों के बाद अपना प्यारा शहर आगरा भी छोड़ना पड़ा और न चाहते हुए भी दिल्ली आना पड़ा. दिल्ली अब पहले जैसी बिलकुल ना रह गयी थी , हर जगह उजाड़ हो गई थी लोगों के चेहरों पर ज़िंदगी की कोई निशानी न थी। नादिर शाह बेहद ही ज़ालिम था उसने पूरी तरह से दिल्ली को बर्बाद कर दिया था . ऐसा कहा जाता है की नादिर शाह ने अपने मौत की झूठी खबर दिल्ली में फैला दी, ये देखने के लिए की लोग उसके मरने की खबर सून कर क्या करते हैं, वो इस बात को जानता था की उसको यहाँ कोई भी पसंद नहीं करता था सब उससे डरते थे उसके सामने उसकी तारीफ किया करते और उसके पीठ पीछे सब उसकी बुराई करते उसके मरने की दुआएं किया करते. और ऐसा हुआ भी जैसे जैसे उसके मरने की ख़बर दिल्ली की गलियों में फैलने लगी सबके चेहरे खिलने लगे सारे लोग खुशियाँ मनाने लगे, मगर ये ख़बर थी तो झूठी नादिर शाह ने जब ये देखा की दिल्ली के लोग उसके मरने की ख़बर सून के बहुत खुश हैं और सारी दिल्ली में त्योहार जैसा माहौल है तो उसको बहुत ग़ुस्सा आया। उसने अपने सिपाहियों को हुक़्म दिया, की जो जहां दिखे उसको वहीं क़त्ल कर दिया जाये। उसके सिपाहियों ने हुक़्म से आगे बढ़ कर दिल्ली में क़त्लो ग़ारत मचा दी न बच्चा देखा न औरत न मर्द न ही बुज़ूर्ग दिल्ली जैसे लाशों लूट पाट जिस तरह का ज़ुल्म हो सकता था उन्होने सब कर दिया, ऐसा कहा जाता है की एक ही दिन में करीबन 22000 (बाईस हज़ार) लोगो का क़त्ल किया गया उस दिन.
दीवाना शायर मीर
मीर की ज़िंदगी कोई करवट लेती उससे पहले कोई न कोई हादसा गुज़र जाता वो दौर था, जब लोग शारी बहुत पसंद किया करते थे शाही दरबारों में शाही शायर हुआ करते थे उनका रुतबा भी बड़ा हुआ करता था, और उस दौर में फ़ारसी शायरी और फ़ारसी शायरों का दौर था और मीर ख़ालिस उर्दू में शायरी किया करते थे, मगर उर्दू शायरी को उस वक़्त ज़्यादा तवज्जो नहीं दी जाती थी. मीर को उर्दू में शायरी करने का हौसला सैयद सआदत अली ने दिया और उनकी काफी हौसला अफ़ज़ाई की. 25 साल की उम्र में मीर को एक दीवाने शायर का तमगा मिल गया।
पानीपत की तीसरी लड़ाई
सन 1748 में उन्हे मालवा के सूबेदार के बेटे को पढ़ने लिखने का काम मिल गया और उनकी ज़िंदगी थोड़ी सी संभली, और कुछ ही दिन गुजरे थे की हिंदुस्तान पर फिर एक बार हमला हो गया ये वक़्त था सन 1761. और इस बार हमला किया अफगानों ने उस वक़्त अफगानों का सरदार था अहमद शाह अबदाली (दुर्रानी). वो नादिर शाह का ही वजीर हुआ करता था एक जमाने में, पानीपत की ज़बरदस्त तीसरी लड़ाई हुई कई दिनों लड़ने के बाद आखिरकार मराठा राजाओं की हार हुई.
दिल्ली को एक बार फिर वही सब लूट मार कत्ल-ओ-ग़ारत देखनी पड़ी सब कुछ जो बहुत दिनों बाद संभला था फिर से बर्बाद हो गया, मगर इस बार मीर दिल्ली में ही रहे सारे ज़ुल्म सहे सब कुछ अपनी आँखों से देखा और खामोशी से यहीं दिन काटते रहे।
मीर का दुनियाँ से जाना
अहमद शाह अबदाली के हमले के बाद मीर “अशफ-उद-दुलाह” के दरबार में लखनऊ चले आए, और अपने ज़िंदगी के बाकी बचे दिन उन्होने यहीं बिताए. सन 1810 ई में मीर ने इस फ़ानी दुनियाँ को अलविदा कह दिया.
सिरहाने “मीर” के आहिस्ता बोलो
अभी टूक रोते रोते सो गया है.....
मीर की शोहरत
उनकी लिखी ग़ज़लों का 6 दीवान है जिसमें कुल 13585 दोहे हैं, जिसमें हर क़िस्म जैसे ग़ज़ल,नज़्म,मसनवी, कसीदा,रुबाई मुस्तज़ाद हैं. मीर को ज़्यादा शोहरत उनकी किताब कुलियात-ए-मीर से मिली इसमें उन्होने उर्दू के सहारे ग़ज़ल को नई सुरत बख़्शी. उन्होने फ़ारसी के लब्ज़ों और फ़ारसी के मुहावरों कहावतों का उर्दू के साथ बख़ूबी इस्तेमाल किया। उर्दू जिसे उस वक़्त रेख़ता के नाम से जाना जाता था या हिंदवी भी उर्दू का एक नाम था. जिससे उनकी शायरी को एक नया मुकाम मिला और आने वाले कई सदियों तक शायरी लिखने वाले और शायरी पढ़ने वाले को वो रौशनी दिखती रहेगी.
उलटी हो गई सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया
मीर तकी मीर की कुछ चुनिन्दा ग़ज़लें जो आपको यकीनन पसंद आएंगी
बेखुदी ले गयी कहाँ हम को
बेखुदी ले गयी कहाँ हम को
देर से इंतज़ार है अपना
रोते फिरते हैं सारी-सारी रात
अब यही रोज़गार है अपना
दे के दिल हम जो हो गए मजबूर
इस में क्या इख्तियार है अपना
कुछ नही हम मिसाले-अनका लेक
शहर-शहर इश्तेहार है अपना
जिस को तुम आसमान कहते हो
सो दिलों का गुबार है अपना
फ़क़ीरा ना आए सदा कर चले
फ़क़ीरा ना आए सदा कर चले
मियाँ खुश रहो हम दुआ कर चले
जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम
सो इस अहद को अब वफ़ा कर चले
कोई ना-उम्मीदाना करते निगाह
सो तुम हम से मुँह भी छिपा कर चले
बहोत आरजू थी गली की तेरी
सो याँ से लहू में नहा कर चले
दिखाई दिए यूँ कि बेखुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले
जबीं सजदा करते ही करते गई
हक-ऐ-बंदगी हम अदा कर चले
परस्तिश की याँ तईं कि ऐ बुत तुझे
नज़र में सबों की ख़ुदा कर चले
गई उम्र दर बंद-ऐ-फ़िक्र-ऐ-ग़ज़ल
सो इस फ़न को ऐसा बड़ा कर चले
कहें क्या जो पूछे कोई हम से "मीर"
जहाँ में तुम आए थे, क्या कर चले
इब्तिदा-ए-इश्क़ है रोता है क्या
इब्तिदा-ए-इश्क़ है रोता है क्या
आगे-आगे देखिये होता है क्या
क़ाफ़िले में सुबह के इक शोर है
यानी ग़ाफ़िल हम चले सोता है क्या
सब्ज़ होती ही नहीं ये सरज़मीं
तुख़्मे-ख़्वाहिश दिल में तू बोता है क्या
ये निशान-ऐ-इश्क़ हैं जाते नहीं
दाग़ छाती के अबस धोता है क्या
ग़ैरते-युसूफ़ है ये वक़्त ऐ अजीज़
'मीर' इस को रायेग़ाँ खोता है क्या
शब् को वो पीए शराब निकला
शब् को वो पीए शराब निकला
जाना ये कि आफ़्ताब निकला
क़ुर्बाँ प्याला-ए-मै-नाब
जैसे कि तेरा हिजाब निकला
मस्ती में शराब की जो देखा
आलम ये तमाम ख़्वाब निकला
शैख़ आने को मै-क़दे में आया
पर हो के बहोत ख़राब निकला
था ग़ैरत-ए-बादा अक्स-ए-गुल से
जिस जू-ए-चमन से आब निकला
चलते हो तो चमन को चलिये
चलते हो तो चमन को चलिये
कहतए हैं कि बहाराँ है
पात हरे हैं फूल खिले हैं
कम कम बाद-ओ-बाराँ है
आगे मैख़ाने को निकलो
अहद-ए-बादा गुज़ाराँ है
लोहु-पानी एक करे ये
इश्क़-ए-लालाअज़ाराँ है
इश्क़ में हमको "मीर" निहायत
पास-ए-इज़्ज़त-दाताँ है
उलटी हो गई सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया
उलटी हो गई सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया
अह्द-ए-जवानी रो-रो काटा, पीरी में लीं
आँखें मूँद
यानि रात बहुत थे जागे सुबह हुई आराम किया
नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोहमत है मुख़्तारी की
चाहते हैं सो आप करें हैं, हमको अबस बदनाम किया
सारे रिन्दो-बाश जहाँ के तुझसे सजुद में रहते हैं
बाँके टेढ़े तिरछे तीखे सब का तुझको अमान किया
सरज़द हम से बे-अदबी तो वहशत में भी कम ही हुई
कोसों उस की ओर गए पर सज्दा हर हर गाम किया
किसका क़िबला कैसा काबा कौन हरम है क्या अहराम
कूचे के उसके बाशिन्दों ने सबको यहीं से सलाम किया
ऐसे आहो-एहरम-ख़ुर्दा की वहशत खोनी मुश्किल थी
सिहर किया, ऐजाज़ किया, जिन
लोगों ने तुझ को राम किया
याँ के सपेद-ओ-स्याह में हमको दख़ल जो है सो इतना है
रात को रो-रो सुबह किया, या दिन को ज्यों-त्यों शाम किया
सायदे-सीमीं
दोनों उसके हाथ में लेकर छोड़ दिए
भूले उसके क़ौलो-क़सम पर हाय ख़याले-ख़ाम किया
ऐसे आहू-ए-रम ख़ुर्दा की वहशत खोनी मुश्किल है
सिह्र किया, ऐजाज़ किया, जिन लोगों ने तुझको राम किया
'मीर' के दीन-ओ-मज़हब का अब पूछते क्या हो उनने तो
क़श्क़ा खींचा दैर में बैठा, कबका तर्क इस्लाम
किया
न सोचा न समझा न सीखा न जाना
न सोचा न समझा न सीखा न जाना
मुझे आ गया ख़ुदबख़ुद दिल लगाना
ज़रा देख कर अपना जल्वा दिखाना
सिमट कर यहीं आ न जाये ज़माना
ज़ुबाँ पर लगी हैं वफ़ाओं कि मुहरें
ख़मोशी मेरी कह रही है फ़साना
गुलों तक लगायी तो आसाँ है लेकिन
है दुशवार काँटों से दामन बचाना
करो लाख तुम मातम-ए-नौजवानी
प 'मीर'
अब नहीं आयेगा वोह ज़माना
जो तू ही सनम हम से बेज़ार होगा
जो तू ही सनम हम से बेज़ार होगा
तो जीना हमें अपना दुशवार होगा
ग़म-ए-हिज्र रखेगा बेताब दिल को
हमें कुढ़ते-कुढ़ते कुछ आज़ार
होगा
जो अफ़्रात-ए-उल्फ़त है ऐसा तो आशिक़
कोई दिन में बरसों का बिमार होगा
उचटती मुलाक़ात कब तक रहेगी
कभू तो तह-ए-दिल से भी यार होगा
तुझे देख कर लग गया दिल न जाना
के इस संगदिल से हमें प्यार होगा
बात क्या आदमी की बन आई
बात क्या आदमी की बन आई
आस्माँ से ज़मीन नपवाई
चरख ज़न उसके वास्ते है मदाम
हो गया दिन तमाम रात आई
माह-ओ-ख़ुर्शीद-ओ-बाद सभी
उसकी ख़ातिर हुए हैं सौदाई
कोफ़्त से जान लब पर आई है
कोफ़्त से जान लब पर आई है
हम ने क्या चोट दिल पे खाई है
लिखते रुक़ा,
लिख गए दफ़्तर
शौक़ ने बात क्या बड़ाई है
दीदनी है शिकस्गी दिल की
क्या इमारत ग़मों ने ढाई है
है तसन्ना के लाल हैं वो लब
यानि इक बात सी बबाई है
दिल से नज़दीक और इतना दूर
किस से उसको कुछ आश्नाई है
जिस मर्ज़ में के जान जाती है
दिलबरों ही की वो जुदाई है
याँ हुए ख़ाक से बराबर हम
वाँ वही नाज़-ए-ख़ुदनुमाई है
मर्ग-ए-मजनूँ पे अक़्ल गुम है 'मीर'
क्या दीवाने ने मौत पाई है
कैसे कैसे किये तरद्दद जब
रंग रंग उसको चीज़ पहुँचाई
उसको तरजीह सब के उपर दे
लुत्फ़-ए-हक़ ने की इज़्ज़त अफ़ज़ाई
हैरत आती है उसकी बातें देख
ख़ुद सरी ख़ुद सताई ख़ुदराई
शुक्र के सज्दों में ये वाजिब था
ये भी करता सदा जबीं साई
सो तो उसकी तबीयत-ए-सरकश
सर न लाई फ़रो के टुक लाई
'मीर'
नाचीज़ मुश्त-ए-ख़ाक अल्लाह
उन ने ये किबरिया कहाँ पाई
मेरे संग-ए-मज़ार पर फ़रहाद
मेरे संग-ए-मज़ार पर फ़रहाद
रख के तेशा कहे है 'या उस्ताद'
हम से बिन मर्ग क्या जुदा हो मलाल
जान के साथ है दिल-ए-नाशाद
फ़िक्र-ए-तामीर में न रह मुनीम
ज़िन्दगी की कुछ भी है बुनियाद
ख़ाक भी सर पे डालने को नहीं
किस ख़राबे में हम हुये आबाद
सुनते हो तुक सुनो कि फिर मुझ बाद
न सुनोगे ये नाला-ओ-फ़रियाद
हर तरफ़ हैं असीर हम-आवाज़
बाग़ है घर तेरा तो ऐ सय्याद
हम को मरना ये है के कब होवे
अपनी क़ैद-ए-हयात से आज़ाद
आरज़ूएं हज़ार रखते हैं
आरज़ूएं हज़ार रखते हैं
तो भी हम दिल को मार रखते हैं
बर्क़ कम हौसला है, हम भी तो
दिलक एे बेक़रार रखते हैं
ग़ैर है मौरीद ए इनायत हाये
हम भी तो तुझ से प्यार रखते हैं
न निगह ने पयाम ने वादा
नाम को हम भी यार रखते हैं
हम से ख़ुश-ज़मज़मा कहाँ यूँ तो
लब ओ लहजा हज़ार रखते हैं
चोटटे दिल की हैं बुतां मशहूर
बस, यही एतबार रखते हैं
फिर भी करते हैं 'मीर' साहब
इश्क़
हैं जवाँ, इख़्तियार रखते
यारो मुझे मु'आफ़ रखो मैं नशे में हूँ
यारो मुझे मु'आफ़ रखो मैं नशे में हूँ
अब दो तो जाम खाली ही दो मैं नशे में हूँ
माज़ूर हूँ जो पाओं मेरा बेतरह पड़े
तुम सर-गराँ तो मुझ से न हो मैं नशे में हूँ
या हाथों हाथ लो मुझे मानिंद-ए-जाम-ए-मय
या थोड़ी दूर साथ चलो मैं नशे में हूँ
मस्ती से दरहमी है मेरी गुफ्तगू के बीच
जो चाहो तुम भी मुझको को कहो में नशे में हूँ
नाजुक मिजाज आप क़यामत है मीर जी
ज्यों शीशा मेरे मुंह न लगो में नशे में हूँ
हम जानते तो इश्क न करते किसू के साथ
हम जानते तो इश्क न करते किसू के साथ,
ले जाते दिल को खाक में इस आरजू के साथ।
नाजां हो उसके सामने क्या गुल खिला हुआ,
रखता है लुत्फे-नाज भी रू-ए-निकू के साथ।
हंगामे जैसे रहते हैं उस कूचे में सदा,
जाहिर है हश्र होगी ऐसी गलू के साथ।
मजरूह अपनी छाती को बखिया किया बहुत,
सीना गठा है 'मीर' हमारा रफू के साथ.
बेकली बेख़ुदी कुछ आज नहीं
बेकली बेख़ुदी कुछ आज नहीं
एक मुद्दत से वो मिज़ाज नहीं
दर्द अगर ये है तो मुझे बस है
अब दवा की कुछ एहतेयाज नहीं
हम ने अपनी सी की बहुत लेकिन
मरज़-ए-इश्क़ का इलाज नहीं
शहर-ए-ख़ूबाँ को ख़ूब देखा मीर
जिंस-ए-दिल का कहीं रिवाज नहीं
दिखाई दिये यूं कि बेख़ुद किया
दिखाई दिये यूं कि बेख़ुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले
जबीं सजदा करते ही करते गई
हक़-ए-बन्दगी हम अदा कर चले
परस्तिश की यां तक कि अय बुत तुझे
नज़र में सभों की ख़ुदा कर चले
बहुत आरज़ू थी गली की तेरी
सो यां से लहू में नहा कर चले
मरते हैं हम तो आदम-ए-ख़ाकी की शान पर
मरते हैं हम तो आदम-ए-ख़ाकी की शान पर
अल्लाह रे दिमाग़ कि है आसमान पर
कुछ हो रहेगा इश्क़-ओ-हवस में भी इम्तियाज़
आया है अब मिज़ाज तेरा इम्तिहान पर
मोहताज को ख़ुदा न निकाले कि जू हिलाल
तश्हीर कौन शहर में हो पारा-नान पर
शोख़ी तो देखो आप कहा आओ बैठो "मीर"
पूछा कहाँ तो बोले कि मेरी ज़ुबान पर
ज़ख्म झेले दाग़ भी खाए बोहत
ज़ख्म झेले दाग़ भी खाए बोहत
दिल लगा कर हम तो पछताए बोहत
दैर से सू-ए-हरम आया न टुक
हम मिजाज अपना इधर लाये बोहत
फूल,
गुल,
शम्स-ओ-क़मर सारे ही थे
पर हमें उनमें तुम ही भाये बोहत
मीर से पूछा जो मैं आशिक हो तुम
हो के कुछ चुपके से शरमाये बोहत
आ के सज्जादः नशीं क़ैस हुआ मेरे बाद
आ के सज्जादः नशीं क़ैस हुआ मेरे बाद
न रही दश्त में ख़ाली कोई जा मेरे बाद
चाक करना है इसी ग़म से गिरेबान-ए-क़फ़न
कौन खोलेगा तेरे बन्द-ए-कबा मेरे बाद
वो हवाख़्वाहे-चमन हूँ कि चमन में हर सुब्ह
पहले मैं जाता था और बाद-ए-सबा मेरे बाद
तेज़ रखना सर-ए-हर ख़ार को ऐ दश्त-ए-जुनूँ !
शायद आ जाए कोई आबला-पा मेरे बाद
मुँह पे रख दामन-ए-गुल रोएंगे मुर्ग़ान-ए-चमन
हर रविश ख़ाक उड़ाएगी सबा मेरे बाद
बाद मरने के मेरी क़ब्र पे आया वो 'मीर'
याद आई मेरे ईसा को दवा मेरे बाद
कुछ करो फ़िक्र मुझ दीवाने की
कुछ करो फ़िक्र मुझ दीवाने की
धूम है फिर बहार आने की
वो जो फिरता है मुझ से दूर ही दूर
है ये तरकीब जी के जाने की
तेज़ यूँ ही न थी शब-ए-आतिश-ए-शौक़
थी खबर गर्म उस के आने की
जो है सो पाइमाल-ए-ग़म है मीर
चाल बेडोल है ज़माने की
हमारे आगे तेरा जब किसी ने नाम लिया
हमारे आगे तेरा जब किसी ने नाम लिया
दिल-ए-सितम-ज़दा को हमने थाम-थाम लिया
ख़राब रहते थे मस्जिद के आगे मयख़ाने
निगाह-ए-मस्त ने साक़ी की इंतक़ाम लिया
वो कज-रविश न मिला मुझसे
रास्ते में कभू
न सीधी तरहा से उसने मेरा सलाम लिया
मेरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में
तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया
अगरचे गोशा-गुज़ीं हूँ मैं शाइरों में 'मीर'
प'
मेरे शोर ने रू-ए-ज़मीं तमाम किया
हर जी हयात का, है सबब जो हयात का
हर जी हयात का,
है सबब जो हयात का
निकले है जी उसी के लिए, कायनात का
बिखरे हैं जुल्फ, उस रूख-ए-आलम फ़रोज पर
वर्न:, बनाव होवे न दिन और रात का
उसके फ़रोग-ए-हुस्न से,
झमके है सब में नूर
शम्म-ए-हरम हो या कि दिया सोमनात का
क्या मीर तुझ को नाम: सियाही की फ़िक्र है
ख़त्म-ए-रूसुल सा शख्स है,
जामिन नजात का
मामूर शराबों से कबाबों से है सब देर
मामूर शराबों से कबाबों से है सब देर
मस्जिद में है क्या शेख़ प्याला न निवाला
गुज़रे है लहू वाँ सर-ए-हर-ख़ार से अब तक
जिस दश्त में फूटा है मेरे पांव का छाला
मेरे ही नसीबों में था ये ज़हर का प्याला
मेरे ही नसीबों में था ये ज़हर का प्याला
ग़म रहा जब तक कि दम में दम रहा
ग़म रहा जब तक कि दम में दम रहा
दिल के जाने का निहायत ग़म रहा
दिल न पहुँचा गोशा-ए-दामन तलक
क़तरा-ए-ख़ूँ था मिज़्हा पे जम रहा
जामा-ए-अहराम-ए-जाहिद पर न जा
ज़ुल्फ़ खोले तू जो टुक आया नज़र
उम्र भर याँ काम-ए-दिल बरहम रहा
उसके लब से तल्ख़ हम सुनते रहे
अपने हक़ में आब-ए-हैवाँ सम रहा
हुस्न था तेरा बहुत आलम फरेब
खत के आने पर भी इक आलम रहा
मेरे रोने की हकीकत जिस में थी
एक मुद्दत तक वो क़ाग़ज़ नम रहा
सुबह पीरी शाम होने आई `मीर'
तू न जीता, याँ बहुत दिन कम रहा
पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
पत्ता-पत्ता बूटा-बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने, बाग़ तो सारा जाने है
लगने न दे बस हो तो उस के गौहर-ए-गोश के बाले तक
उस को फ़लक चश्म-ए-मै-ओ-ख़ोर की तितली का तारा जाने है
आगे उस मुतक़ब्बर के हम ख़ुदा ख़ुदा किया करते हैं
कब मौजूद् ख़ुदा को वो मग़रूर ख़ुद-आरा जाने है
आशिक़ सा तो सादा कोई और न होगा दुनिया में
जी के ज़िआँ को इश्क़ में उस के अपना वारा जाने है
चारागरी बीमारी-ए-दिल की रस्म-ए-शहर-ए-हुस्न नहीं
वर्ना दिलबर-ए-नादाँ भी इस दर्द का चारा जाने है
क्या ही शिकार-फ़रेबी पर मग़रूर है
वो सय्यद बच्चा
त'एर उड़ते हवा में सारे अपनी उसारा जाने है
मेहर-ओ-वफ़ा-ओ-लुत्फ़-ओ-इनायत एक से वाक़िफ़ इन
में नहीं
और तो सब कुछ तन्ज़-ओ-कनाया रम्ज़-ओ-इशारा जाने है
क्या क्या फ़ितने सर पर उसके लाता है माशूक़ अपना
जिस बेदिल बेताब-ओ-तवाँ को इश्क़ का मारा जाने है
आशिक़ तो मुर्दा है हमेशा जी उठता है देखे उसे
यार के आ जाने को यकायक उम्र दो बारा जाने है
रख़नों से दीवार-ए-चमन के मूँह को ले है छिपा य'अनि
उन सुराख़ों के टुक रहने को सौ का नज़ारा जाने है
तशना-ए-ख़ूँ है अपना कितना 'मीर'
भी नादाँ तल्ख़ीकश
दमदार आब-ए-तेग़ को उस के आब-ए-गवारा जाने है
इधर से अब्र उठकर जो गया है
इधर से अब्र उठकर जो गया है
हमारी ख़ाक पर भी रो गया है
मसाइब और थे पर दिल का जाना
अजब इक सानीहा सा हो गया है
मुकामिर-खाना-ऐ-आफाक वो है
के जो आया है याँ कुछ खो गया है
सरहाने 'मीर' के आहिस्ता बोलो
अभी टुक रोते-रोते सो गया है
जो इस शोर से 'मीर' रोता रहेगा
जो इस शोर से 'मीर'
रोता रहेगा
तो हम-साया काहे को सोता
रहेगा
मैं वो रोनेवाला जहाँ से चला हूँ
जिसे अब्र हर साल रोता रहेगा
मुझे काम रोने से हरदम है नासेह
तू कब तक मेरे मुँह को धोता रहेगा
बसे गिरया आंखें तेरी क्या
नहीं हैं
जहाँ को कहाँ तक डुबोता रहेगा
मेरे दिल ने वो नाला पैदा किया है
जरस के भी जो होश खोता रहेगा
तू यूं गालियाँ गैर को शौक़ से दे
हमें कुछ कहेगा तो होता रहेगा
बस ऐ 'मीर' मिज़गां से पोंछ आंसुओं को
तू कब तक ये मोती पिरोता रहेगा
जीते-जी कूचा-ऐ-दिलदार से जाया न गया
जीते-जी कूचा-ऐ-दिलदार से जाया न गया
उस की दीवार का सर से मेरे साया न गया
दिल के तईं आतिश-ऐ-हिज्राँ से बचाया न गया
घर जला सामने पर हम से बुझाया न गया
क्या तुनक हौसला थे दीदा-ओ-दिल अपने आह
इक दम राज़ मोहब्बत का छुपाया न गया
दिल जो दीदार का क़ायेल की बहोत भूका था
इस सितम-कुश्ता से यक ज़ख्म
भी खाया न गया
शहर-ऐ-दिल आह अजब जाए थी पर उसके गए
ऐसा उजड़ा कि किसी तरह बसाया ना गया
दिल की बात कही नहीं जाती, चुप के रहना ठाना है
दिल की बात कही नहीं जाती, चुप के रहना ठाना है
हाल अगर है ऐसा ही तो जी से जाना जाना है
सुर्ख़ कभू है आँसू होती ज़र्द् कभू है मूँह मेरा
क्या क्या रंग मोहब्बत के हैं, ये भी एक ज़माना है
फ़ुर्सत है यां कम रहने की, बात नहीं कुछ कहने की
आँखें खोल के कान जो खोले बज़्म-ए-जहां अफ़साना है
तेग़ तले ही उस के क्यूँ ना गर्दन डाल के जा बैठें
सर तो आख़िरकार हमें भी हाथ की ओर झुकाना है
आए हैं मीर मुँह को बनाए जफ़ा से आज
आए हैं मीर मुँह को बनाए जफ़ा से आज
शायद बिगड़ गयी है उस बेवफा से आज
जीने में इख्तियार नहीं वरना हमनशीं
हम चाहते हैं मौत तो अपने खुदा से आज
साक़ी टुक एक मौसम-ए-गुल की तरफ़ भी देख
टपका पड़े है रंग चमन में हवा से आज
था जी में उससे मिलिए तो क्या क्या न कहिये 'मीर'
पर कुछ कहा गया न ग़म-ए-दिल हया से आज
अपने तड़पने की मैं तदबीर पहले कर लूँ
अपने तड़पने की मैं तदबीर पहले कर लूँ
तब फ़िक्र मैं करूँगा ज़ख़्मों को भी रफू का।
यह ऐश के नहीं हैं या रंग और कुछ है
हर गुल है इस चमन में साग़र भरा लहू का।
बुलबुल ग़ज़ल सराई आगे हमारे मत कर
सब हमसे सीखते हैं, अंदाज़
गुफ़्तगू का।
कहा मैंने कितना है गुल का सबात
कहा मैंने कितना है गुल का सबात
कली ने यह सुनकर तब्बसुम किया
जिगर ही में एक क़तरा खूं है सरकश
पलक तक गया तो तलातुम किया
किसू वक्त पाते नहीं घर उसे
बहुत 'मीर' ने आप को गम किया
देख तो दिल कि जाँ से उठता है
देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआं सा कहाँ से उठता है
गोर किस दिल-जले की है ये फलक
शोला इक सुबह याँ से उठता है
खाना-ऐ-दिल से ज़िन्हार न जा
कोई ऐसे मकान से उठता है
नाला सर खेंचता है जब मेरा
शोर एक आसमान से उठता है
लड़ती है उस की चश्म-ऐ-शोख जहाँ
इक आशोब वां से उठता है
सुध ले घर की भी शोला-ऐ-आवाज़
दूद कुछ आशियाँ से उठता है
बैठने कौन दे है फिर उस को
जो तेरे आस्तान से उठता है
यूं उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है
इश्क इक 'मीर' भारी पत्थर है
बोझ कब नातावां से उठता है .
Nice
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