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23 फरवरी 1304 को मराकिश (मोरक्को) में एक क़ाज़ियों के घर में एक बहुत ही सामान्य से लड़के का जन्म हुआ, जिसका नाम रखा गया मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन मुहम्मद बिन इब्राहीम अललवाती अलतंजी अबू अब्दुल्लाह ”इब्न-ए-बतूता” आमतौर पर इतना लंबा नाम नहीं रखा जाता था किसी का । घर क़ाज़ियों (मुस्लिम धर्म के जानकार) का था, तो बातें वहाँ अक्सर इस्लाम की हुआ करती थीं, नन्हें बतूता ने उस माहौल में अपना बचपन बिताया. वो ख़ुद भी बहुत ही धार्मिक था इस स्वभाव के चलते उसका मन होता था की वो उन सब जगहों पर जाए जिसका संबंध इस्लाम से हो उसके दिल में ये बात बहुत डीनो से थी की वो एक बार हज करने मक्का जाए.
वो जब 21 साल का हुआ तब उसने मन बना लिया की वो मक्का मदीना जायगा हज के लिए , 14 जून 1325 को मोरक्को से उसने अपने पहले सफर की शुरुवात की जब उसने सफर की शुरुवात की तब उसे सिर्फ उसकी मंज़िल का नाम पता था, वहाँ तक जाना कैसे है? क्या-क्या मुश्किलें होंगी ? रास्ते में उसको उसका पता न था. वो जैसे जैसे आगे बढ़ता गया उसका रोमांच और बढ़ता गया, 28 साल की उम्र में उसने 75000 मील का सफ़र तय कर लिया था.
Photo Courtesy : thoughtco.com
सऊदी अरब से पहले अलजीरिया, ट्यूनिशिया, मिस्र, फिलिस्तीन और सीरिया होते हुए एक बड़े कारवाँ के साथ वो मक्का पहुँच गया, जब वो सऊदी अरब के रास्ते में था तब उसे दो साधु मिले जिन्होने उसे पूर्वी देशों के किस्से सुनाये। पूरब की बातों ने जैसे बतूता के दिमाग पर जादू सा कर दिया। उसने सोचा की एक दिन वो पूरब की तरफ सफ़र ज़रूर करेगा, और उसने ऐसा किया भी वो अफगानिस्तान के रास्ते भारत में दाख़िल हुआ, उस वक्त दिल्ली में की तख़्त पर सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक तख़्तनशीं था। तुग़लक ने बहुत पहले ही बतूता की कहानियाँ सून रखीं थीं, वो ख़ुद भी उससे मिलना चाहता था और जैसे ही उसने सूना की बतूता दिल्ली में हैं उसने उसे अपने दरबार में बुलाया और उसे अपने दरबार में क़ाज़ी-ए-आला का ओहदा दे दिया वो लगभग 7 साल तक दिल्ली में रहा.
सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने बतूता को अपना दूत बनाकर सन 1342 में चीन भेजा,चीन का सफ़र उसने मालवा के इलाके से होते हुए गोवा और फिर वहाँ से कलिकट से शुरू किया, मगर इस सफ़र में उसे बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ा, खैर सब परेशानियों से जूझते हुए हिम्मत और हौसले से भरा हुआ बतूता श्रीलंका और बंगाल की खाड़ी से होते हुए चीन पहुँच ही गया.
Photo Courtesy : orias.berkeley.edu
(बतूता द्वारा तय किए सफ़र का नक्शा)
ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा सफ़र में बीताने के बाद बतूता सन 1354 के शुरुवाती दिनों में अपने मुल्क मोरोक्को वापस आ गया,वहाँ की राजधानी फेज में उसका जोरदार स्वागत किया गया, वजह थी की उस से पहले किसी ने इतना लंबा सफ़र नहीं किया था, वहाँ के शहंशाह ने अपने एक दरबारी मूहोम्मद इब्न जुजेय को बतूता के सफ़र की सब किस्से सब रास्ते लिखने का काम दिया, और उस दस्तावेज़ का नाम दिया गया "तुहफ़तअल नज्ज़ार फ़ी गरायब अल अमसार व अजायब अल अफ़सार" इसकी एक प्रति आज भी पेरिस के राष्ट्रिय संग्रहालय में सुरक्षित है. इसके बाद बतूता ने अपनी ज़िंदगी के बचे दिन मोरोक्को में ही बिताए, और सन 1377 में ये महान यात्री अपनी आखिरी यात्रा पर निकाल पड़ा.
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इब्न-ए-बतूता...
बतूता की पैदाइश और बचपन
23 फरवरी 1304 को मराकिश (मोरक्को) में एक क़ाज़ियों के घर में एक बहुत ही सामान्य से लड़के का जन्म हुआ, जिसका नाम रखा गया मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह बिन मुहम्मद बिन इब्राहीम अललवाती अलतंजी अबू अब्दुल्लाह ”इब्न-ए-बतूता” आमतौर पर इतना लंबा नाम नहीं रखा जाता था किसी का । घर क़ाज़ियों (मुस्लिम धर्म के जानकार) का था, तो बातें वहाँ अक्सर इस्लाम की हुआ करती थीं, नन्हें बतूता ने उस माहौल में अपना बचपन बिताया. वो ख़ुद भी बहुत ही धार्मिक था इस स्वभाव के चलते उसका मन होता था की वो उन सब जगहों पर जाए जिसका संबंध इस्लाम से हो उसके दिल में ये बात बहुत डीनो से थी की वो एक बार हज करने मक्का जाए.
बतूता का पहला सफ़र
वो जब 21 साल का हुआ तब उसने मन बना लिया की वो मक्का मदीना जायगा हज के लिए , 14 जून 1325 को मोरक्को से उसने अपने पहले सफर की शुरुवात की जब उसने सफर की शुरुवात की तब उसे सिर्फ उसकी मंज़िल का नाम पता था, वहाँ तक जाना कैसे है? क्या-क्या मुश्किलें होंगी ? रास्ते में उसको उसका पता न था. वो जैसे जैसे आगे बढ़ता गया उसका रोमांच और बढ़ता गया, 28 साल की उम्र में उसने 75000 मील का सफ़र तय कर लिया था.
Photo Courtesy : thoughtco.com
पूर्वी देशों का इरादा
सऊदी अरब से पहले अलजीरिया, ट्यूनिशिया, मिस्र, फिलिस्तीन और सीरिया होते हुए एक बड़े कारवाँ के साथ वो मक्का पहुँच गया, जब वो सऊदी अरब के रास्ते में था तब उसे दो साधु मिले जिन्होने उसे पूर्वी देशों के किस्से सुनाये। पूरब की बातों ने जैसे बतूता के दिमाग पर जादू सा कर दिया। उसने सोचा की एक दिन वो पूरब की तरफ सफ़र ज़रूर करेगा, और उसने ऐसा किया भी वो अफगानिस्तान के रास्ते भारत में दाख़िल हुआ, उस वक्त दिल्ली में की तख़्त पर सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक तख़्तनशीं था। तुग़लक ने बहुत पहले ही बतूता की कहानियाँ सून रखीं थीं, वो ख़ुद भी उससे मिलना चाहता था और जैसे ही उसने सूना की बतूता दिल्ली में हैं उसने उसे अपने दरबार में बुलाया और उसे अपने दरबार में क़ाज़ी-ए-आला का ओहदा दे दिया वो लगभग 7 साल तक दिल्ली में रहा.
चीन का सफ़र
सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने बतूता को अपना दूत बनाकर सन 1342 में चीन भेजा,चीन का सफ़र उसने मालवा के इलाके से होते हुए गोवा और फिर वहाँ से कलिकट से शुरू किया, मगर इस सफ़र में उसे बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ा, खैर सब परेशानियों से जूझते हुए हिम्मत और हौसले से भरा हुआ बतूता श्रीलंका और बंगाल की खाड़ी से होते हुए चीन पहुँच ही गया.
Photo Courtesy : orias.berkeley.edu
(बतूता द्वारा तय किए सफ़र का नक्शा)
आख़िरी सफ़र
ज़िंदगी का एक बड़ा हिस्सा सफ़र में बीताने के बाद बतूता सन 1354 के शुरुवाती दिनों में अपने मुल्क मोरोक्को वापस आ गया,वहाँ की राजधानी फेज में उसका जोरदार स्वागत किया गया, वजह थी की उस से पहले किसी ने इतना लंबा सफ़र नहीं किया था, वहाँ के शहंशाह ने अपने एक दरबारी मूहोम्मद इब्न जुजेय को बतूता के सफ़र की सब किस्से सब रास्ते लिखने का काम दिया, और उस दस्तावेज़ का नाम दिया गया "तुहफ़तअल नज्ज़ार फ़ी गरायब अल अमसार व अजायब अल अफ़सार" इसकी एक प्रति आज भी पेरिस के राष्ट्रिय संग्रहालय में सुरक्षित है. इसके बाद बतूता ने अपनी ज़िंदगी के बचे दिन मोरोक्को में ही बिताए, और सन 1377 में ये महान यात्री अपनी आखिरी यात्रा पर निकाल पड़ा.
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