Biography of Majaaz Lakhnavi असरारुल-हक़-मजाज़ की ज़िन्दगी



कुछ तुम्हारी निगाह काफ़िर थी 


कुछ मुझे भी ख़राब होना था


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असरारुल-हक़-मजाज़


असरारुल-हक़-मजाज़ इनको मजाज़ लखनवी के नाम से भी जाना जाता है, इनकी पैदाइश 9 अक्तूबर 1911 को उत्तरप्रदेश के बारंबांकी ज़िले के रुदौली में हुई । उनके वालिद का नाम जनाब सिराज-उल-हक़ था वो उस रियासत के जमींदार हुआ करते थे, और वो उस इलाके के पहले वकालत की तालिम हासिल करने वाले थे. और वो एक सरकारी मुलाज़िम थे उस वक़्त सरकारी मुलाज़िम का दर्ज़ा बहुतबड़ा हुआ करता था, वो हर भारतीय पिता की तरह चाहते थे की की उनका बेटा भी किसी सरकारी महकमे में इंजीनियर की नौकरी करे,  रुदौली खास तौर पर सूफियों के लिए मशहूर है. मजाज़ के ख़ानदान का सिलसिला हज़रत उस्मान हारूनी से मिलता है जो ख़ुद भी एक सूफ़ी दरवेश थे और फ़ारसी के बड़े शायरों में उनका शुमार था। मजाज़ के शुरुवाती तालिम रुदौली के ही मकदुमिया स्कूल से हुई जो उस वक़्त के मशहूर अंग्रेज़ी स्कूलों में से एक था, फिर हाई स्कूल की पढ़ाई उन्होने लखनऊ के अमीनाबाद इंटर कॉलेज से की और फिर इंटरमिडिएट तक की पढ़ाई सेंट जॉन कॉलेज आगरा से की.

तस्कीन ए दिले मेह्ज़ू न हुई 


सन 1931 में मजाज़ अलीगढ़ जा पँहुचे इरादा था BA की पढ़ाई का अलीगढ़ में उन्होने अलीगढ़ मुस्लिम युनिवेर्सिटी में दाखिला लिया। यहाँ उनके शख्सियत को पहचान मिलने लगी उनके हुनर में भी निखार आया, आए तो वो यहाँ इंजीनियर बनाने और बन गए शायर , हज़रत फ़ानी बदायूनि उनके उस्ताद रहे इन्ही की शागिर्दगी में उन्होने शेर और शायरी सिखी, उन्होने अपना तखल्लुस असरार शहीद रखा था. इतने शायरों की शोहबत उन्हे मिली मगर उन्होने कभी अपनी लिखावट में किसी का असर दिखने नही दिया उनका जो अंदाज़ था लिखने का वो उसी अंदाज़ पर लिखते रहे. अलीगढ़ में ही उनकी मुलाक़ात सआदत हसन मंटो, इस्मत चुगताई, अली सरदार ज़ाफरी, सिब्ते हसन, जाँ निसार अख़्तर जैसे नामचीन शायरों से हुई. अलीगढ़ में ही उन्होने अपना तखल्लुस “मजाज़” रखा, मजाज़ ने आगरा में मूहोब्बत, हुस्न और इश्क़ पर शेर लिखे मगर जब वो इन इंकलाबी शायरों से मिले तो उन्होने भी इंकलाबी शायरी शुरू कर दी. वहाँ उन्होने लिखी नज़र खालिदा, सरमायादारी, रेल, अंधेरी रात का मुसाफिर और अलीगढ़ जैसी न भूल पाने वाली ग़ज़लें लिखीं.

            इस्मत चुगाई ने अपनी किताब “काग़ज़ है पैराहन” में मजाज़ के बारे में लिखा है की, जब मजाज का दीवान (कविता संग्रह ) “आहंग” छपा तो वहाँ कॉलेज के गर्ल्स हॉस्टल में लड़कियों पर जैसे नशा तरी हो गया था, मजाज़ को लेकर वो अपने तकिये के नीचे उनकी किताब रख कर सोती रहतीं उनकी लिखी हुई ग़ज़लें गुनगुनाया करतीं और कागज़ पर परचियाँ लिख कर ये फैसला करतीं की कौन उनकी दुल्हन बनेगी

तराना 


अपने ज़िंदगी के बेहतरीन साल उन्होने अलीगढ़ में गुज़ारे यहीं उन्होने कई मशहूर ग़ज़लें और नज़्में कहीं. वो दौर था की मजाज़ की तस्वीरें लड़कियां अपनी किताबों में दबा कर रखती उनका जादू जैसे चारों तरफ फैला हुआ था शायर तो वो बहुत अच्छे थे ही साथ में वो दिखने में भी बहुत खूबसूरत थे, सन 1951 में उन्होने एक तराना लिखा अलीगढ़ मुस्लिम युनिवेर्सिटी के लिए और उसदिन युनिवेर्सिटी के वीएम हाल में ये तराना युनिवेर्सिटी के तराने के लिए शामिल किया गया वो तराना कुछ यूं है...


सरशार-ए-निगाह-ए-नर्गिस हूँ पा-बस्ता-ए-गेसू-ए-सुम्बुल हूँ
ये मेरा चमन है मेरा चमन मैं अपने चमन का बुलबुल हूँ
हर आन यहाँ सहबा-ए-कुहन इक साग़र-ए-नौ में ढलती है
कलियों से हुस्न टपकता है फूलों से जवानी उबलती है
जो ताक़-ए-हरम में रौशन है वो शम्अ यहाँ भी जलती है
इस दश्त के गोशे गोशे से इक जू-ए-हयात उबलती है
इस्लाम के इस बुत-ख़ाने में असनाम भी हैं और आज़र भी
तहज़ीब के इस मय-ख़ाने में शमशीर भी है और साग़र भी
याँ हुस्न की बर्क़ चमकती है याँ नूर की बारिश होती है
हर आह यहाँ इक नग़्मा है हर अश्क यहाँ इक मोती है
हर शाम है शाम-ए-मिस्र यहाँ हर शब है शब-ए-शीराज़ यहाँ
है सारे जहाँ का सोज़ यहाँ और सारे जहाँ का साज़ यहाँ
ये दश्त-ए-जुनूँ दीवानों का ये बज़्म-ए-वफ़ा परवानों की
ये शहर-ए-तरब रूमानों का ये ख़ुल्द-ए-बरीं अरमानों की
फ़ितरत ने सिखाई है हम को उफ़्ताद यहाँ पर्वाज़ यहाँ
गाए हैं वफ़ा के गीत यहाँ छेड़ा है जुनूँ का साज़ यहाँ
इस फ़र्श से हम ने उड़ उड़ कर अफ़्लाक के तारे तोड़े हैं
नाहीद से की है सरगोशी परवीन से रिश्ते जोड़े हैं
इस बज़्म में तेग़ें खींची हैं इस बज़्म में साग़र तोड़े हैं
इस बज़्म में आँख बिछाई है इस बज़्म में दिल तक जोड़े हैं
इस बज़्म में नेज़े फेंके हैं इस बज़्म में ख़ंजर चूमे हैं
इस बज़्म में गिर कर तड़पे हैं इस बज़्म में पी कर झूमे हैं
आ आ के हज़ारों बार यहाँ ख़ुद आग भी हम ने लगाई है
फिर सारे जहाँ ने देखा है ये आग हमीं ने बुझाई है
याँ हम ने कमंदें डाली हैं याँ हम ने शब-ख़ूँ मारे हैं
याँ हम ने क़बाएँ नोची हैं याँ हम ने ताज उतारे हैं
हर आह है ख़ुद तासीर यहाँ हर ख़्वाब है ख़ुद ताबीर यहाँ
तदबीर के पा-ए-संगीं पर झुक जाती है तक़दीर यहाँ
ज़र्रात का बोसा लेने को सौ बार झुका आकाश यहाँ
ख़ुद आँख से हम ने देखी है बातिल की शिकस्त-ए-फ़ाश यहाँ
इस गुल-कदा-ए-पारीना में फिर आग भड़कने वाली है
फिर अब्र गरजने वाले हैं फिर बर्क़ कड़कने वाली है
जो अब्र यहाँ से उट्ठेगा वो सारे जहाँ पर बरसेगा
हर जू-ए-रवाँ पर बरसेगा हर कोह-ए-गिराँ पर बरसेगा
हर सर्व-ओ-समन पर बरसेगा हर दश्त-ओ-दमन पर बरसेगा
ख़ुद अपने चमन पर बरसेगा ग़ैरों के चमन पर बरसेगा
हर शहर-ए-तरब पर गरजेगा हर क़स्र-ए-तरब पर कड़केगा
ये अब्र हमेशा बरसा है ये अब्र हमेशा बरसेगा

ऑल इंडिया रेडियो  


सन 1935 में वो दिल्ली आ गए ऑल इंडिया रेडियो में उन्हे सब एडिटर की नौकरी मिल गई वहाँ से एक रेडियो प्रोग्राम ब्रॉडकास्ट होता था “आवाज़”।

जो मजाज़ कभी कई लड़कियों के दिल की धडकनों की रफ्तार तय किया करते थे लड़कियां दीवानी थीं उनके लिए मगर उन्हे इश्क़ हुआ तो एक शादी शुदा लड़की से जो बेहद अमीर आदमी की बीवी थीं। ये नाकाम इश्क़ ही उनकी ज़िंदगी का आख़री इश्क़ साबित हुआ उस नाकामी से वो कभी उबर न सके. आवाज़” का रेडियो पर प्रसारण भी बहुत लबे वक़्त तक नहीं चला और इन सब हादसों ने मजाज़ के दिल पर बहुत बुरा असर डाला और उन्होने इन हादसों से घबरा कर शराब का सहारा ले लिए वो दिन रात शराबों में डूबे रहते इतना पीने लगे थे के लोग कहना शुरू कर दिया था की अब मजाज़ शराब नहीं पीते बल्कि शराब अब मजाज़ को पी रही है, अपनी बदनामी और अपने नाकाम इश्क़ के साथ वो लखनऊ आ गए.

सन 1939 में उन्होने “नया अदब” पत्रिका का सम्पादन किया उनके साथ थे सरदार आली ज़ाफरी, मगर पैसों की कमी की वजह से ये पत्रिका भी बहुत वक़्त न छाप सकी, फिर एक बार उन्होने दिल्ली का रुख़ किया और होर्डिंग लाइब्रेरी में उन्होने काम किया। कुछ दिनों वहाँ काम करने के बाद वो मुंबई चले गए और वहाँ कुछ दिन रहे मगर वो शहर उन्हे पसंद नहीं आया वो जिस बैचनी में जी रहे थे उन्हे क्या कोई शहर पसंद आता वो तो अपने दिल को बहलने के लिए कभी यहाँ कभी वहाँ भटक रहे थे मगर दिल था भी उन्हीं का उसको चैन ही नहीं मिलता था मुंबई में रहने के दौरान उन्होने ये मशहूर ग़ज़ल कही थी….


शहर की रात और मैं नाशाद ओ नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती सड़कों पर आवारा फिरूँ
ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ.
रास्ते में थक के डैम ले लूँ मेरी आदत नहीं
लौट के वापस चला जाऊँ मेरी फितरत नहीं
और कोई हमनवा मिल जाए ये किस्मत नहीं ....

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भारत सरकार द्वारा मजाज़ के नाम डाक टिकट 

लखनऊ 


अब उन्होने फिर रुख़ किया लखनऊ का ये शहर कुछ हद तक उन्हे पसंद आता था , मगर नाकाम इश्क़ ने उन्हे अंदर तक झकझोर के रख दीया था अब वो पहले से ज़्यादा शराब पीने लगे जिसकी वजह से उनकी हालत खराब होने लगी वो अक्सर बीमार रहने लगे चुपचाप दिन गुजारते और शराब पीते रहते ये शराब उन्हे नर्वस ब्रेकडाउन तक ले आई वो अब बहुत कमजोर हो गए थे उनका बदन अब आधा हो गया 1952 में उन्होने ज़रा खुद पर काबू पा लिया और अभी संभले ही थे की 1952 में उनकी बहन जिसे वो बहुत प्यार करते थे उनकी मौत हो गई ये सदमा वो बर्दाश्त नहीं कर सके और ये सदमा लिए वो जी रहे थे.

लगभग हर तरह की शायरी उन्होने की इश्क़, हुस्न, इंकलाबी, दर्द उन्होने रवीन्द्रनाथ टैगोर की कविताओं को भी अपनी तरह से लिखा, जब गांधी जी का क़त्ल कर दिया गया तब उन्होने उनके लिए लिखा था...

हिंदू चला गया न मुसलमाँ चला गया
इंसाँ की जुस्तुजू में इक इंसाँ चला गया
ख़ुश है बदी जो दाम ये नेकी पे डाल के
रख देंगे हम बदी का कलेजा निकाल के

इस कदर बीमार रहते हुए भी उन्होने एक शायर की ज़िम्मेदारी समझी जो कुछ हुआ उसका लेखा जोखा उन्होने अपनी ग़ज़लों में किया ,


शराब और मजाज़ और आख़िर रात 



उम्र महज 44 साल में वो अपने नाकाम इश्क़ अपनी बेकरारी अपने दर्द को लेकर दुनियाँ को छोड़ गए, शराब उनके लिए जहर के जैसी हो गई थी और वो ये जहर लगातार पी रहे थे. डॉक्टरों ने और अज़ीज़ दोस्तों ने हज़ार बार उनको माना किया पीने को मगर फिर वो मजाज़ थे पीते रहे। कुछ शराबी दोस्तों के साथ उन्होने शराबखाने की छत पर रात भर शराब पी दोस्त उनको वहाँ अकेला छोड़ के चले गए और अगली सुबह उन्हे वहाँ बेजान पाया गया वो काली सुबह थी 4 दिसम्बर 1952 की.

मजाज़ से जुड़े कुछ किस्से


  • एक बार अलीगढ़ यूनिवर्सिटी में इस्मत चुगताई ने मजाज़ से कहा कि लड़कियां आपसे मुहब्बत करती हैं. इस पर मजाज़ फौरन बोले, ‘और शादी पैसे वालों से कर लेती हैं.



  • एक बार चुगताई ने ही पूछा कि तुम्हारी ज़िंदगी को ज्यादा लड़की ने बर्बाद किया या शराब ने. इस पर मजाज़ का जवाब था की, मैंने दोनों को बराबर का हक दिया है.



  • एक बार फिराक गोरखपुरी की पोती ने उन्हे कुछ कह दिया, फिराक ने मजाज़ से कहा, ‘देखिए ये बच्ची मुझसे किस तरह बात कर रही है .मजाज़ ने तुरंत कहा, ‘मर्दुमशनास (आदमी को पहचानने वाली) मालूम होती है.



  • जोश मलीहाबादी ने एक बार उन्हें सामने घड़ी रखकर पीने की सलाह दी तो जवाब मिला, ‘आप घड़ी रख के पीते हैं, मैं घड़ा रख के पीता हूं.



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